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सूर कृष्ण के बाल - वर्णन में गतिमयता लाने में सजग प्रतीत होते हैं ताकि वह स्थिर चित्र बनकर न रह जाए । इसीलिए वे बाल-लीला का वर्णन तो करते ही हैं, ग्वाल-समाज को भी उसमें सम्मिलित करते हैं । सूर ने कृष्ण के रूप-वर्णन में बार-बार छवि, शोभा, रूप आदि शब्दों का प्रयोग किया है जिससे सौंदर्य के अधिक व्यापक स्वरूप का बोध होता है। इस शोभा- छवि का संबंध कृष्ण की लीलाओं से जुड़ जाता है, जो हैं तो मानुष जैसी ही, पर अपने प्रभाव में वशीकरण उपजाती हैं और इस दृष्टि से माखन- लीला का विशेष महत्त्व है । ग्वाल-बाल जीवन, जो कृषि - चरागाही संस्कृति से संबद्ध है और जिसका आधार पशुधन है, उसके लिए दधि-माखन एक प्रकार से पूँजी ही नहीं, संस्कृति भी है और गो- चारण आदि को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए। कृष्ण का रूप - चित्र है : शोभित कर नवनीत लिए, घुटुरनि चलत रेनु - तन-मंडित मुख दधि लेप किए। पर यह दृश्य गतिशील होता है, जब माखन - लीला के माध्यम से गोपिकाओं का राग-भाव विकसित होता है। सूर ने बाल-कृष्ण के मनोहारी रूप-चित्र बनाए हैं : कहाँ लौं बरनौं सुंदरताई (726), हरि जू की बाल - छवि कहौं बरनि (727) आदि । पर इस सौंदर्य में वृद्धि होती है, विभिन्न
लाओं द्वारा क्योंकि कृष्ण और ग्वाल-बाल, गोपियों में समीपता बढ़ती है । गोपिकाएँ अनेक प्रकार से कृष्ण के प्रति अपने राग-भाव की अभिव्यक्ति करती हैं : अद्भुत इक चितौ हौं सजनी, नंद महर के आँगन री, सो मैं निरखि अपनपौ खोयौ, गई मथानी माँगन री - कहँ लगि कहौं बनाइ बरनि छवि, निरखत मति - गति हारी री, सूर स्याम के एक रोम पर देउँ प्रान बलिहारी री ( 755 ) ।
माखन- लीला, गो- चारण ब्रजमंडल की कृषि - चरागाही संस्कृति से संबद्ध प्रसंग हैं, जिनका उपयोग सूर ने कृष्ण और ग्वाल समाज, गोपियों से निकट संबंध स्थापित करने में किया है । पर इसी के माध्यम से ब्रज की कृषक चरवाहा संस्कृति अपनी लोक-चेतना के साथ उजागर होती है, जहाँ सूरदास की कविता का समाजशास्त्र है और समाजदर्शन भी। सूरदास ने कटु जीवन - यथार्थ के स्थान पर, उस लोकोत्सव का राग-रंग चुना जो अभावों में भी जीवित रहता है और जहाँ अमिश्रित संवेदन व्यक्त होते हैं । माखन-लीला के साथ कृष्ण के प्रति जिस राग-भाव का विकास होता है उसे सूरदास रेखांकित करते हैं। आगे चलकर रास-प्रसंग आदि से जुड़कर वह और भी प्रगाढ़ होता है, जिसे साहचर्यजन्य प्रेम कहा गया : लरिकाई कौं प्रेम, अह अलि छूटैं कैसे ? सूर गोपिकाओं की इस इच्छा को कई रूपों में व्यक्त करते हैं कि कृष्ण की माखन चोरी, उनके रूप-दर्शन का एक नायाब अवसर है । यहाँ भी कृष्ण का रूप सामाजीकृत है क्योंकि ग्वाल-बाल साथ हैं : सखा-सहित गए माखन चोरी (888) | कई पदों में यह आकांक्षा व्यक्त हुई है कि कृष्ण के आगमन का स्वागत है : ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारे आवैं (890), गोपालहिं माखन खान दै, (891)। गोपिकाएँ बार-बार उस रूप - राशि को निहारती हैं, सुख मानती हैं :
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सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 141