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बार बेअसर होते हैं । गोपिकाएँ कथनी-करनी के द्वैत को पाटती हैं- समर्पण की निःस्वार्थ भूमि अपनाती हैं। अकारण नहीं कि सूरसागर में वर्षा ऋतु के कई पद हैं, जहाँ गोपिकाओं का वियोग चरम पर है ( पद 3915 - 3959 ) । गोपिकाओं का कथन है : सुनि सखि वा ब्रजराज बिना, सब फीकौ लागत चाहि (3963 ) । सूर का एक पक्ष यह भी विचारणीय कि जब गोपिकाएँ कुब्जा के प्रति आक्रोश व्यक्त करती हैं, तो वह साधारण सहपत्नीत्व भाव नहीं है। इस माध्यम से सूर ग्राम-नगर की मानसिकता के अंतर का संकेत भी करना चाहते हैं । गोपिकाएँ मथुरा को 'काजर की ओबरी' अथवा कोठरी कहती हैं : वह मथुरा काजर की ओबरी, जै आवैं ते कारे ( 4380 ) । मथुरा की नागरिकाओं को वे चतुर सुजान कहती हैं, जिनकी तुलना में गोपिकाएँ भोली-भाली हैं, इसीलिए छली गईं। उनका तर्क है कि निर्गुण सामान्यजन के लिए अग्राह्य है, यह तो नागरिकाओं के उपयुक्त है । और वे कहती हैं कि हमारे लिए तो योग का आरम्भ उसी क्षण हो गया, जब कृष्ण गोकुल से चले गए : ता दिन तैं सब छोह मोह गयो, सुत - पति हेतु भुलान्यौ ( 4314 ) । कुब्जा और मथुरा - नागरिकाओं पर व्यंग्य ग्राम - नगर द्वन्द्व का संकेत करता है, आंशिक ही सही, जिसे मध्यकालीन वर्ग-भेद में देखा जा सकता है । गोपिकाएँ अपनी निश्छलता के विषय में कहती हैं : हम अजान, मति भोरी ( 4171 ), हम अहीर अबला ब्रजबासी । कृष्ण मथुरा जाकर भ्रमरवृत्ति में उलझ गए, गोकुल को भुला दिया। वे तीखे व्यंग्य करती हैं : लौंडी के घर डौंडी बाजी, स्याम राग अनुराग (4270 ), मधुकर तुम रस- लंपट लोग (4599 ) । गोपिकाओं का आत्मविश्वास है कि मधुकर हम न होहिं वे बेली ( 4126 ) । एक पद में चुनौती है : जसुमति-जननी, प्रिया राधिका, देखे औरहुँ देस (4696 ) । सूर ने पूरी संलग्नता से गोपिकाओं का प्रेम-भाव चित्रित किया है, जिसका संश्लिष्ट रूप है-राग, स्मृति, विषाद, आक्षेप, असहमति, व्यंग्य, कटाक्ष, और इन सबसे मिलकर प्रेम - वृत्त पूर्ण होता है। कृष्ण प्रेम का प्रतिदान करते हैं, यह गोपिकाओं के स्नेह की असंदिग्ध स्वीकृति है ( 4775) :
ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं
हंस - सुता की सुंदर कगरी, अरु कुंजन की छाहीं वै सुरभी वै बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जाहीं ग्वाल-बाल मिलि करत कुलाहल नाचत गहि गहि बाँही यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि मुक्ताहल जाहीं जबहिं सुरत आवति वा सुख की, जिय उमगत तन नाहीं अनगन भाँति करी बहु लीला, जसुदा नंद निबाहीं सूरदास प्रभु रहे मौन ह्वै, यह कहि कहि पछताहीं ।
कृष्ण को लेकर सगुण-निर्गुण के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रश्न भी उठते रहे हैं,
जैसे उनमें लोकरंजक की प्रधानता है और लोकरक्षक पक्ष राम में अधिक उभरा है।
156 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन