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ज्यौं कपोत वियोग आकुल, जात है तजि धाम जात यौं दृग फिरि न आवत, बिना दरसन स्याम
स्रवन सनि जस रहत हरि को मन रहत धरि ध्यान रहति रसना नाम रटि-रटि, कंठ कर गुनि-गान कछुक दियौ सुहाग इनकौं, तौ सबै ये लेत
सूर स्याम बिना बिलोकैं, नैन चैन न देत। सूर ने भ्रमरगीत को गोपिकाओं की प्रेम-परीक्षा के लिए भी प्रयुक्त किया है। इससे प्रेम परीक्षित होकर, प्रगाढ़ होता है और सामंती देहवाद से मुक्ति की यह मार्मिक परिकल्पना है। सूर ने गोपिकाओं के नेत्रों में चिरंतन वर्षा ऋतु की कल्पना की है : सखी इन नैननि तैं घन हारे अथवा निसि दिन बरसत नैन हमारे/सदा रहत बरसा-ऋतु हम पर जब तैं स्याम सिधारे (3854)। भ्रमरगीत-प्रसंग में नेत्रों की व्यथा के इतने मार्मिक प्रसंग प्रमाणित करते हैं कि गोपिकाओं की दर्शन-लालसा ही उनकी अभीप्सा है। एक पद में वे कहती हैं : ब्रजलोचन बिनु लोचन कैसे ? नेत्रों की सार्थकता कृष्ण-रूप-माधुरी के दर्शन में है। जब कृष्ण गोकुल से मथुरा चले जाते हैं, अथवा कुरुक्षेत्र-द्वारका तब उनका एक भावुक तर्क है कि हमें सम्राट के नहीं, उस मुरलीधारी के दर्शन चाहिए जिसे हमने अपनी चेतना में बसा रखा है। सम्राटत्व का निषेध गोपिकाओं की सहज प्रेममयता पर आश्रित है, जिसमें गोकुल-परिवेश की भूमिका है, जहाँ उनके संस्कार निर्मित हुए। इसीलिए वे बार-बार कृष्ण के उसी रूप का ध्यान करती हैं, जो उनका सहज मानवीय रूप है : मेरौ मन वैसीयै सुरति करै (3899)। गोपिकाओं का भावावेग प्रेमाश्रित है और उनके तर्क भावपरिचालित, पर इसके पीछे उनका निश्छल प्रेम है, अडिग-अटूट । वे कहती हैं, सब सुख कृष्ण के साथ चले गए : सबै सुख लै जु गए ब्रजनाथ (4026)। पर भ्रमरगीत-प्रसंग में गोपिकाओं का एक पक्ष सर्वाधिक विचारणीय है कि वे कृष्ण को उसी रूप में देखना-पाना चाहती हैं, जिसे उन्होंने गोकुल-वृंदावन में जाना था। वे निर्गुण को भावाश्रित तर्क से काटने का यत्न करती हैं जो कई बार तर्कहीन प्रतीत होता है : निरगुन कौन देस कौ बासी/ मधुकर कहि समुझाइ सौंह दै, बूझति साँच न हाँसी (4249)। भ्रमरगीत इस प्रकार के कुतर्कों से भरा है, जिसके मूल में गोपिकाओं की व्यथा-कथा है। उन्हें तो यह भी विश्वास नहीं कि कृष्ण ने उद्धव को भेजा होगा : स्याम तुमहिं हयाँ कौं नहिं पठयौ, तुम हौ बीच भुलाने। वे चतुर कृष्ण को जानती हैं, उद्धव से पूछती हैं : सूर स्याम जब तुमहिं पठायौ, तब नैंकहुं मुसकाने (4139)।
गोपिकाएँ सूर के उदात्त प्रेमभाव का आधार हैं, जिस माध्यम से वे भक्तिदर्शन का प्रतिपादन करते हैं। यहाँ वे अपनी भावनामयता में उपस्थित हैं, गोपियों के साथ हैं। दर्शन-विचार की चरितार्थता चरित्रों के आचरण में होती है क्योंकि वक्तव्य कई
सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 155