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वात्सल्य के क्षेत्र में सूर का असंदिग्ध महत्त्व स्वीकारते हुए भी टिप्पणी की कि भगवान की तीन विभूतियों-शक्ति, शील और सौंदर्य में से उन्होंने स्वयं को सौंदर्य तक सीमित रखा। सूर को अपने भाव में मग्न रहने वाले कवि के रूप में देखते हैं, जिन्होंने लोक की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया (सूरदास, पृ. 157)। आचार्यश्री की सौंदर्य की अपनी व्याख्या है, पर वे स्वयं स्वीकार करते हैं कि लोककर्म में, लोकधर्म में सौंदर्य होता है। सूर का माध्यम गीत है और कृष्ण की संपूर्ण कथा कहना उनका मुख्य प्रयोजन भी नहीं है। प्रमुख लीलाएँ उनकी दृष्टि में हैं, जिसको आधार भागवत है। गीतात्मकता ने सूर के संवेदन-संसार की सीमाएँ निश्चित कर दी, इसे हम स्वीकारते हैं और यह भी कि वे श्रृंगार में अधिक रमते हैं, यह उनकी चेतना के अधिक समीप है। पर क्या यह संभव है कि कृष्ण जैसे काव्य-नायक को लोकसंपृक्ति से गुजारे बिना उसके व्यक्तित्व को कोई वृहत्तर दीप्ति दी जा सकती है ?
सूर में लोकजीवन की संपृक्ति का धरातल अन्य कवियों से किंचित् भिन्न है। कृष्ण-लीलाएँ हैं, जिनमें चमत्कार अंश भी हैं, जिसके लिए प्रायः महाकाव्यों का स्मरण किया जाता है। पर भागवत तथा कृष्णगाथा से संबद्ध अन्य पुराणों में जो कृष्णलीला वर्णित है, उसका उपयोग सूर ने अपनी कल्पना-क्षमता से किया है। यदि शृंगार का अतिरेक है, तो उसका एक प्रयोजन यह भी कि महाकवि पूरे प्रसंग को मानुषीकृत करना चाहते हैं, अकुंठित भाव से। इस मानुष गाथा के बीच से ही कृष्ण के विराट व्यक्तित्व का बोध कराना कवि के समक्ष चुनौती है और चुनौती भी सही शब्द नहीं है, कवि के लिए अग्नि-परीक्षा जैसी है। सूर अतिक्रांत करके इन अवरोधों को पार कर सके, यह उनकी विजय है, सर्जनात्मक धरातल पर । रागात्मकता, गहनतम रागात्मकता को उच्चतम मानवीय धरातल पर ले जाना और उसमें उदात्त भक्तिभावना का प्रवेश कराना सूर की असाधारण प्रतिभा का असंदिग्ध प्रमाण है। इसे सही परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए, बिना किसी पूर्वाग्रह के और किसी कवि के चारों ओर शर्तों की बाड़ लगाना अथवा किसी भी मंशा से, मनमानी माँग करना, एक प्रकार से सर्जनात्मक प्रतिभा की अवमानना भी है। सूर लोकरंजक-लोकरक्षक का द्वैत पाटते चलते हैं, यह उनकी उदात्त मानवीय दृष्टि से ही संभव हो सका। सूर के कृष्ण, राधा, ग्वाल-बाल, गोपिकाएँ, नंद यशोदा सब मानुष-भूमि पर संचरित हैं, यही महाकवि का लोकधर्म है। यशोदा जानती हैं कि कान्हा देवकी की कोख से जन्मा है, पर उनका वात्सल्य अप्रतिम है, विश्वकाव्य में बेजोड़। कृष्ण की बाल-लीला की वे सात्त्विक साक्ष्य हैं, ममतालु माँ। हर लीला में सूर इसे दुहराते चलते हैं कि माँ यशोदा परम सुख मानती हैं : चलत देखि जसुमति सुख पावै (744)। वे बालक कृष्ण को राम-कथा सुनाती हैं, जो स्वयं में एक प्रयोग है-राम-कृष्ण के द्वैत को समाप्त करता, क्योंकि दोनों विष्णु अवतार हैं। अपने वात्सल्य में वह नंद को भी क्षमा नहीं करतीं, कहती हैं : दरकि न गई बज्र की छाती, कत यह सूल सह्यौ (3752)। यशोदा संदेश भिजवाती
सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 159