Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 148
________________ गए माखन चोरी (888)। सूर ने इस प्रसंग के माध्यम से गोपिकाओं के प्रेम-भाव को विकास दिया है; यहाँ तक कि उनके उपालंभ में भी स्नेह है-कृष्ण-दर्शन का बहाना। गोकुल-वृंदावन में मध्यकाल में जो कृषक-चरवाहा संस्कृति थी, उसे व्यक्त करने का प्रयास भी सूर ने इस माध्यम से किया है। यहाँ गोपिकाएँ अकुंठित भूमि पर हैं और उनके खुलेपन को चरागाही सभ्यता के संदर्भ में रखकर देखना अधिक प्रासंगिक होगा। सूर कहते हैं : ग्वालिनि उरहन मैं मिस आईं, नंद-नंदन तन-मन हरि लीन्हौ, बिनु देखें छिन रह्यौ न जाई (921)। सूर ने गोपिकाओं की रूपासक्ति का वर्णन कई प्रकार से किया है, पर कृष्ण की 'मुख-छबि' वहाँ आकर्षण-केन्द्र है : मुख-छबि कहा कहौं बनाइ, निरखि निस-पति-बदन-सोभा, गयौ गगन दुराइ (970)। नेत्र से प्रेम का आरम्भ होता है, वह चेतना में व्याप जाता है। मुरली गोपिकाओं के राग-भाव को उद्दीप्त करती है, उसे स्थायित्व देती है-रूप और गुण मिलकर 'समग्र छबि बनाते हैं। प्रेम के परिपाक मैं वंशी/मुरली की भूमिका महत्त्वपूर्ण है और कृष्ण वृंदावन से लौटते हैं, तो गोकुल उनकी प्रतीक्षा करता है : बन तैं आवत धेनु चराए, संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रज लपटाए (1035)। मेरा विचार है कि मुरली के माध्यम से सूर कृष्ण के व्यक्तित्व को जो गुण-दीप्ति देना चाहते हैं, वह प्रेम-भाव को ऐसी उदात्तता देती है कि उसका भक्ति में पर्यवसान सहजता से हो जाता है, किसी अतिरिक्त आरोपण की आवश्यकता नहीं होती। गोपिकाएँ अपने निर्बंध प्रेम में सबसे पहले कुल-कानि, गृह-व्यवहार का निषेध कर अपनी भावना को स्वतंत्र, खुली भूमि पर प्रतिष्ठित करती है : छुटि सब लाज गई कुल-कानी, सुत-पति-आरज पंथ भुलानी (1607)। इसका विकास माखन-लीला से होते हुए, रास-प्रसंग में अपनी पूर्णता पर पहुंचता है। सूर ने गोपिकाओं का जो नामोल्लेख किया है (पद 2626) उसका आधार पौराणिक है, पर कृष्ण की लीलाओं की सहभागिनी रूप में वे समान भाव से सम्मिलित हैं। सूर ने उनके सौंदर्य का वर्णन अकुंठित भाव से किया है, जिस पर कृष्ण भी रीझते हैं : छवि की उपमा कहि न परति है, या छवि की जु छबीली (917)। रास श्रृंगार की पूर्णता का प्रतीक है, जो किसी भी कवि के लिए परीक्षा का क्षण है। कालिदास, रवींद्र जैसे सौंदर्यस्रष्टा कवियों ने सौंदर्य-श्रृंगार के चित्र निर्मित किए हैं, पर प्रायः उनके पास कथा-प्रसंग भी हैं। रवींद्र ने देव-कचयानी, उर्वशी, अभिसार जैसी कविताएँ रची हैं, जहाँ कवि के समक्ष चुनौती है कि प्रचलित प्रसंग में सौंदर्य-प्रेम को संयोजित कैसे करें ? 'उर्वशी' को वे अकुंठित, वृंतहीन पुष्प, अनंत यौवना, अपूर्व शोभना, भुवनमोहिनी आदि कहते हैं। पर 'अभिसार' में संन्यासी का मनोजगत् बदलता है : इतने दिनों बाद क्या आज उनकी अभिसार-रात्रि आई है ? सूर रासलीला-प्रसंग को विस्तार देते हुए प्रकृति के खुले मंच का उपयोग करते हैं, मध्यकालीन सामंती सीमाएँ तोड़ते हैं और यमुना उसका साक्ष्य है। उल्लेखनीय यह कि रास में यमुना-तट सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 153

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