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है। पर गोपिकाएँ कृष्ण के प्रेम के लिए लौकिक संबंधों का निषेध कर चुकी हैं, इसका उल्लेख सूर कई प्रकार से करते हैं : मेटि कुलकानि मरजाद बिधि वेद की, त्याग गृह-नेह, सुनि बेनु धाईं (1753)। रास-प्रसंग में 'काम' शब्द कई बार आता है, पर इसके अतिक्रमण का प्रयत्न भी है, विशेषतया वियोग-स्थिति में रूप-दर्शन की लालसा। ऐसा प्रतीत होता है कि गोपिकाओं के माध्यम से सर जिस प्रेम-दर्शन की नियोजना करते हैं, वह भक्तिदर्शन का प्रमुख आधार है। पर यह किसी रहस्य-संसार की ओर अग्रसर नहीं होता, इसमें लोकजीवन के माध्यम से ही .उदात्ततम धरातल पर जाने का प्रयत्न है। गोपिकाओं के लिए कृष्ण प्रत्येक क्षण प्रिय रूप में चेतना में विद्यमान हैं : हमारे हरि हारिल की लकरी, मनक्रम बचन नंद-नंदन-उर, यह दृढ़ करि पकरी, जागत, सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी (पद 4606)। ____ गोपिकाओं के प्रेम का विकास इस दृष्टि से विचारणीय है कि वह 'लरिकाई कौं प्रेम' है। कृष्ण-जन्म से लेकर मथुरा-गमन और कुरुक्षेत्र-द्वारका प्रवास तक इस राग-भाव का प्रसार है, जो निरंतर प्रगाढ़ होता हुआ, भक्ति की चरम परिणति तक पहुँचता है। सूर ने इसे प्रेम-पुरातन, जन्म-जन्मान्तर का प्रेम कहा है (4902)। गोपिकाओं का प्रेम कृष्ण के व्यक्तित्व के साथ विकास पाता है, उनके हर क्रिया-कलाप में; वे राग-भाव से सम्मिलित नारियाँ हैं । कृष्ण का जन्म होता है तो गोपिकाएँ पारस्परिक वार्तालाप में उस सौन्दर्य को सराहती हैं : सोभा-सिंधु न अंत रही री, नंद-भवन भरि पूरि उमंग चलि, ब्रज की बीथिनि फिरति बही री (647)। बालकृष्ण के सौंदर्य के असंख्य चित्र सूर ने बनाए हैं, और इस क्षेत्र में विश्वकाव्य में वे विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं। ये सापेक्ष चित्र हैं, जहाँ यशोदा के साथ ग्वाल-बाल और गोपिकाएँ विशेष रूप से सम्मिलित हैं। सूर इसे अद्वितीय सुख कहते हैं : जो सुख ब्रज मैं एक घरी, सो सुख तीन लोक मैं नाहीं, धनि यह घोष पुरी (687)। कृष्ण के नामकरण, अन्नप्राशन, वर्षगाँठ, कनछेदन हर उत्सव में गोपिकाएँ रागात्मकता से सम्मिलित हैं और सौंदर्य की यह चर्चा पूरे गोकुल में व्याप जाती है। कवि सूर कृष्ण-सौंदर्य, कृष्ण-लीला को सामाजीकृत करते हैं, यह कृष्णकाव्य में उनका मौलिक प्रदेय है और उनके समाजदर्शन का वैशिष्ट्य प्रमाणित करता है। कृष्ण के हर लीला-दृश्य में गोपिकाएँ सहभागिनी हैं, जैसे यह संलग्न यात्रा है : गोपी-ग्वाल करत कौतूहल घर-घर बजत बधैया (773)। माता यशोदा का वात्सल्य तो स्वाभाविक है, पर गोपिकाएँ और ग्वाल-बालों की, उस सुख में सहभागिता कृष्ण के व्यक्तित्व को जो सामाजिकता देती है, वह उल्लेखनीय है। गो-चारण, वृंदावन-प्रसंग में प्रमुखता ग्वाल-बाल समाज की है और माखन-चोरी प्रसंग में गोपिकाओं की। कृष्ण ब्रज को अपना मानते हैं : सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौं, ये मेरे ब्रज-लोग (886)। यह अपनापा अथवा अपनापन सामंती सीमाओं को मिटाता चलता है, यहाँ वर्ग-भेद मिट जाते हैं, सहयोग की समन्वित भूमि निर्मित होती है। माखन-चोरी के आरंभिक चरण में सब साथ हैं : सखा सहित
152 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन