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अहं से मुक्त होते हैं, जिसे विकार का आधार कहा जाता है। माना गया है कि बाल-वर्णन में सूर अद्वितीय हैं, अप्रतिम । बालक कृष्ण का गतिमय चित्रण, उनकी नाना छवियाँ उभारता है और उस राग-भाव को विकास मिलता है, जो सूर का प्रतिपाद्य है। इसी के बीच कृष्ण की चमत्कारी लीलाएँ हैं- पूतना वध आदि पर सूर की एकाग्रता बाल-सौंदर्य में बनी हुई है । माँ यशोदा के साथ, गोकुल इसमें सम्मिलित है और इस दृष्टि से बालक कृष्ण का रूप सामाजीकृत है। उनके विकास के साथ जन-समाज का राग भाव विकसित होता है : जो सुख ब्रज में एक घरी, सो सुख तीनि लोक में नाहीं, धनि यह घोष पुरी ( पद 687 ) । नामकरण, अन्नप्राशन, वर्षगांठ आदि का वर्णन करते हुए सूर गोकुल को सम्मिलित करते हैं : आजु भोर तमचुर के रोल, गोकुल में आनंद होत है, मंगल धुनि महराने टोल ( पद 712 ) ।
प्रेम का विकास सूरदास में सहज प्रक्रिया से होता है, जिसमें माखन- प्रसंग, गो- दोहन, गो- चारण आदि आते हैं और आगे चलकर मुरली-वादन, रास-प्रसंग हैं। सूरदास में इन लीलाओं को कृषक चरवाहा संस्कृति से संबद्ध करके देखना उचित होगा । यहाँ ब्रजमंडल अपनी प्राकृतिक सुषमा और संस्कारों में उपस्थित है जिससे इस आरोप का खंडन होता है कि सूर में जीवन - यथार्थ के संपर्क नहीं हैं । यथार्थ के कई परिदृश्य होते हैं, जिनमें एक को कबीर ने ग्रहण किया और दूसरे को जायसी-सूर आदि कवियों ने । लोकजीवन के दृश्य यहाँ प्रमुखता पाते हैं और समय की वास्तविकता का एक वृत्त पूर्ण होता है । कवि से हर प्रकार की माँग करना भी बहुत उचित नहीं है क्योंकि वह अपनी चेतना की बनावट के अनुसार चयन करता है और उसी के सहारे अपने काव्य- आशय तक पहुँचना चाहता है । इस दृष्टि से सूर के संवेदन- संसार
एक सम्मिलित भूमि है, जिस ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए। कृष्ण का मानुषिकरण रचनाशीलता का प्रमुख आधार है, जिसे केंद्र में रखकर संपूर्ण चरित - संसार की सृष्टि की गई है। कृष्ण की सहज लीला स्वयं में ब्रजमंडल के आकर्षण का केंद्र है, जिसके लिए मनोहारी जैसे विशेषणों का प्रयोग किया गया है। बीच-बीच में उनके देवत्व के संकेत हैं, पर यदि न भी हों तो कृष्ण का रूप गुण से संबद्ध होकर जिस समग्र सौंदर्य की सृष्टि करता है, वह अभिभूत करने के लिए पर्याप्त है । फिर ब्रज की संस्कृति भी उन्हीं के माध्यम से अभिव्यक्ति पाती है, इस अर्थ में कि वे केवल काव्य-नायक नहीं हैं, लीलाओं के माध्यम से उसमें सम्मिलित हैं । सूर ने रागात्मकता से कृष्ण के बाल-विकास के चित्र बनाए हैं और ब्रजमंडल को इसमें सम्मिलित किया है, जिससे पूरे लीला- दृश्य को एक सामाजिक स्वीकृति मिलती है । यशोदा के लिए यह स्वाभाविक है कि वह बालक का विकास देखकर प्रसन्न है : चलत देखि जसुमति सुख पावै । पर इस वात्सल्य को सूर ग्वाल - समाज, गोपीजन के रागभाव में बदलते हैं : जब तैं आँगन खेलत देख्यौ, मैं जसुदा कौ पूत री, तब तैं गृह सौं नातौं टूट्यौ, जैसे काँचो सूत री ( पद 754 ) ।
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140 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन