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वृंदावन की, सूर- काव्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका है और सामाजीकृत होते कृष्ण के व्यक्तित्व के माध्यम से सूर ग्वालजन के चरवाहा जीवन के विविध चित्र बनाते हैं, जिससे लोक संस्कृति के दृश्य उभरते हैं। कई प्रकार की गायें - धौरी, धूमरि, राती, रौंछी, पियरी, भौरी, गौरी, गैनी, खैरी, कजरी, दुलही, फुलही, भौंरी, भूरी ( 1063), जमुना जल, वृक्ष की छाया में कलेऊ, काली कमली । इस दृश्य में दो नई आकृतियाँ जुड़ती हैं - मोरर-मुकुट और वंशी-वादन, जो कृष्ण के वशीकरण रूप से संबद्ध हो जाते हैं: वै मुरली की टेर सुनावत, वृंदावन सब बासर बसि निसि आगम, जानि चले ब्रज आवत (1124 ) । वृंदावन कृष्ण की लीला को जो नई दीप्ति देता है, उसके विषय में सूर का पद है : माधौ मोहि करौ वृंदावन-रेनु, जिहिं चरननि डोलत नंद-नंदन, दिन प्रति बन बन चार धेनु ( 1107 ) । इस प्रकार के भाव कृष्ण-भक्त कवियों में प्राप्त होते हैं । गो- चारण के प्रसंग में कृष्ण के रूपचित्र बनाते हुए, सूर का ध्यान उनके सहज सौंदर्य पर है : मोर मुकुट बनमाल बिराजत, पीतांबर फहराए, संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रज लपटाए ।
मुरली कृष्ण के व्यक्तित्व को गुण संपन्न करती है, रूपवान तो वे हैं ही। मुरली का आकर्षण ऐसा कि सब इसके स्वर में बद्ध हो जाते हैं जिसे सूर ने कई प्रकार से व्यक्त किया है । वल्लभाचार्य के 'वेणुगीत' में वेणु के छः ऐश्वर्य हैं । भारतेन्दु ने अपनी रचना का नामकरण किया - वेणु - गीति । मुरली की आध्यात्मिक व्याख्याएँ भी हुई हैं, और सूर ने भी इसके अलौकिक प्रभाव का संकेत किया है : मुरली धुनि बैकुंठ गई (1682 ) । सूर में वह राग-भाव के स्थायीकरण का सार्थक उपादान है और रूप के साथ गुण का संयोजन कृष्ण के प्रति जो प्रेमभाव उपजाता है, वह चिरंतन है - स्थायी भाव है; रागात्मकता निरंतर गहराती है। कृष्ण के मुरली-वादन की सूचना गो- चारण प्रसंग में मिल जाती है, यहाँ तक कि गौओं को बुलाने के लिए भी वे इसका उपयोग करते हैं । मुरली को सूर ने कृष्ण के व्यक्तित्व के गुण-विस्तार रूप में प्रस्तुत किया है, जिसका व्यापक प्रभाव है । यह केवल मनुष्यमात्र तक सीमित नहीं है, इसके प्रभाव में सब आते हैं, जैसे वशीकरण मंत्र हो और गोपिकाएँ मर्यादाओं का अतिक्रमण करते हुए, मुरली ध्वनि सुनकर दौड़ पड़ती हैं। भागवत ( 10-29-5) में रासलीला के आरंभ में वंशी के आकर्षण का विस्तृत वर्णन है; यहाँ तक कि शिशुओं को स्तन पान कराना छोड़कर वे भागीं ( 6 ) । इस माध्यम से भागवतकार कृष्ण की वंशी के व्यापक प्रभाव का वर्णन करना चाहते हैं। सूर ने मुरली को कृष्ण के व्यक्तित्व की गुणमयता के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसके आकर्षण में सब बद्ध हैं, यहाँ तक कि प्रकृति भी मुग्ध है और देवत्व भी - यमुना का जल स्थिर हो गया है; खग-मृग सब स्तब्ध हैं; पशु-सुरभी पागुर करना भूल गए हैं; शुक- सनक आदि भी मोहग्रस्त ( पद 1238 ) । सूर ने गोपिकाओं को मुरली - वशवन्दिनी बताते हुए उसके व्यापक प्रभाव का वर्णन किया है ( 1277 ) :
सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 143