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सूर स्याम मुख निरखि थकित भईं, कहत न बनै, रही मन दै हरि (900)। सूर ने कई प्रकार से गोपिकाओं के इस प्रेम-भाव को अभिव्यक्ति दी है और माखन-चोरी प्रकरण को विस्तार से वर्णित करने के मूल में आशय यह कि कृष्ण-लीला के माध्यम से राग-भाव का विकास हो रहा है। उपालंभ आदि के प्रसंग भी इसी के अंतर्गत आते हैं, जब गोपियाँ यशोदा के पास उलाहना के लिए जाती हैं : कान्हहि बरजत किन नंदरानी। पर यशोदा भी जानती हैं : आवति सूर उरहने मैं मिस, देखि कुँवर मुसुकानी।
माखन-प्रसंग में सूर ने एक-साथ कई संकेत किए हैं, जिससे कवि की सामाजिक चेतना का आभास मिलता है। राग-भाव में वृद्धि होती है, जिसमें सभी सम्मिलित हैं-यशोदा, ग्वाल-बाल, गोपी आदि। कृष्ण की बाल-विनोद वृत्ति के संकेत भी यहाँ मिलते हैं : ख्याल परें ये सखा सबै मिलि, मेरों मुख लपटायौ (952)। सूर 'गोरस' आदि शब्दों के प्रयोग से गोकुल की कृषि-सभ्यता का बोध कराना चाहते हैं (पद 944), पूरे प्रसंग को खुलेपन से व्यक्त करते हैं, जहाँ दृश्य सामाजीकृत होता है और प्रेम को विस्तार मिलता है : ब्रज-जुवती स्यामहिं उर लावति, बारंबार निरखि कोमल तनु, कर जोरति, विधि कौं जु मनावत (पद 1008)। गो-चारण प्रसंग इस दृष्टि से राग-भाव का नया विस्तार है कि यहाँ कृष्ण गोकुल की सीमा से आगे बढ़कर वृंदावन में प्रवेश करते हैं और प्रकृति की खुली भूमि में संचरित होते हैं। वृंदावन को तीर्थ के समान माना गया है क्योंकि इसका संबंध कृष्ण की उस सक्रियता से है, जहाँ उनका पौरुष रूप देखा जा सकता है : बकासुर वध से लेकर कालीदह प्रसंग तक। गो-चारण प्रसंग कृष्ण के व्यक्तित्व को एक नया विस्तार देता है, सामाजीकरण की प्रक्रिया में वृद्धि होती है। उनका व्यक्तित्व नई दीप्ति पाता है, वे बाल-लीलाओं से आगे निकलकर चरवाहा समाज में सम्मिलित होते हैं। नन्द सामंत रूप हैं, पर कृष्ण इसे अतिक्रमित करते हैं। उनमें उत्साह है : आजु मैं गाइ चरावन जैहौं, वृंदावन के भाँति-भाँति फल, अपने कर मैं खैहौं (1029), मैं अपनी सब गाइ चरैहौं (1038)। सूर ने गो-चारण प्रसंग में कृष्ण के मार्मिक चित्र बनाए हैं : बन तैं आवत धेनु चराए, संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रज लपटाए (1035)। वृंदावन कृष्ण की गोचारण लीला-भूमि है, इसलिए पवित्र : धनि यह वृंदावन की रेनु, नंद-किशोर चरावत गैयाँ, मुखहिं बजावत बेनु (1109)। कृष्ण को वृंदावन प्रिय है (पद 1067) :
वृंदावन मौकौं अति भावत सुनहु सखा तुम सुबल, श्रीदामा, ब्रज तैं बन गौ-चारन आवत कामधेनु, सुरतरु सुख जितने, रमा सहित बैकुंठ भुलावत इहि वृंदावन, इहि जुमना-तट, ये सुरभी अति सुखद चरावत पुनि-पुनि कहत स्याम श्रीमुख सों, तुम मेरे मन अतिहिं सुहावत सूरदास सुनि ग्वाल चकित भए, यह लीला हरि प्रगट दिखावत
142 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SARALERA...