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जब हरि मुरली अधर धरी गृह-ब्यौहार तजे आरज-पथ, चलत न संक करी पद-रिपु-पट अंटक्यो न सम्हारति, उलट न पलट खरी
मिलिहैं स्यामहिं हंस-सुता तट, आनंद उमंग भरी
सूर स्याम कौं मिलीं परस्पर, प्रेम-प्रबाह ढरी। सूर ने अनेक प्रकार से मुरली-वादन के प्रभाव को व्यक्त किया है, जिसमें चर-अचर सब सम्मिलित हैं। यहाँ तक कि गोपिकाओं को उससे ईर्ष्या होती है कि कृष्ण को अनेक प्रकार से नचाते हुए भी, वह उन पर असाधारण अधिकार रखती है। कृष्ण और मुरली सूर में इतने संयोजित हैं कि 'कहियत भिन्न न भिन्न' की स्थिति है। रास-लीला का प्रसंग मुरली से नई छवि पा जाता है, और सूर ने उसे लगभग पात्र का रूप देते हुए, गोपिकाओं से उसका वार्तालाप कराया है, जो पर्याप्त विस्तार से है (पद 1834-1985)। गोपिकाओं की ईर्ष्या का उत्तर देते हुए, सूर मुरली के 'तप' की सराहना करते हैं : 'मुरली की सरि जनि करौ, वह तप अधिकारिनि' (1961)। यह तप कई पदों में दुहराया गया है, जिससे सूर प्रेम में त्याग-तत्त्व का आग्रह करते प्रतीत होते हैं (1960, 1964, 1966, 1982)। इसके माध्यम से गोपिकाओं का नया रूपांतरण होता है, वे सामाजीकृत होती हैं (1980) :
मुरली दिन-दिन भली भई बन की रहनि नहीं अब यामैं, मधु ही पागि गई अमिय समान कहत है बानी, नीकै जानि लई जैसी संगति बुधि तैसीय, ह्वै गई सुधामई जब आई तब औरै लागी, सो निठरई हई
सूर-स्याम अधरनि के परसैं, सोभा भई नई। रास-लीला सूरसागर का सबसे चुनौती-भरा प्रसंग कहा जा सकता है, इस दृष्टि से कि उसकी व्याख्या को लेकर पर्याप्त विवाद हैं। रास कृष्ण की सर्वोपरि लीलाओं में परिगणित है, जहाँ श्रृंगार अपने चरम पर पहुँचता है। इसका मधुर भाव में पर्यवसान भक्त-कवियों में विचारणीय है। विद्वानों का विचार है कि राधा-कृष्ण की लौकिक चेष्टाएँ अलौकिक संकेत देती हैं और कृष्ण-लीला का आध्यात्मिक पक्ष महत्त्वपूर्ण है। रूपगोस्वामी ने श्रृंगारमूलक भक्तिरस को उज्ज्वल रस कहकर निरूपित किया है (उज्ज्वलनीलमणि)। मधुसूदन सरस्वती ने श्रीभगवद्भक्ति रसायन' में लौकिक-अलौकिक का प्रश्न उठाते हुए लिखा है : 'काव्य-अर्थ के रति आदि भाव लौकिक हैं और रसानुभविता सामाजिक में यही स्थायी भाव अलौकिक हैं। (3-4)। कृष्णभक्ति-काव्य से संबद्ध कवियों और विद्वानों को अनुमान है कि लीला की सही व्याख्या के लिए, दार्शनिक पीठिका के साथ, उसके आध्यात्मिक संकेत का निरूपण आवश्यक है।
144 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन