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भागवत के दशम् स्कंध में उन्तीस से तैंतीस अध्याय तक ‘रासपंचाध्यायी' है, जिसका अनुगमन कवियों ने किया है। आरंभ में ही शुकदेव ने कृष्ण की 'योगमाया' का उल्लेख करते हुए, उनकी अलौकिकता का संकेत किया है (29:1)। प्रकृति के खुले मंच पर रास रचाते हुए, भागवतकार ने स्थान-स्थान पर अध्यात्म-बोधक शब्दों का प्रयोग किया है : भगवान, दिव्य, कान्त, योगेश्वर, भागवत आदि। कृष्ण स्वयं गोपियों को ब्रज लौट जाने का परामर्श देते हैं (29:22) और पातिव्रत धर्म की शिक्षा देते हैं (29:26), पर गोपिकाओं का निवेदन है कि हमें भक्त रूप स्वीकारो (29:31)। काव्य-भाषा में भागवतकार ने गोपिकाओं के प्रेम-भाव का वर्णन किया है। रास-लीला का चित्रण विस्तार से है और गर्विता गोपियों की अहंकार-मुक्ति के लिए कृष्ण अंतर्धान हो जाते हैं : गोपियाँ विरह में डूब जाती हैं (अध्याय 30-31), फिर कृष्ण प्रकट होते हैं, अच्युत भाव में (32:10)। तैंतीसवाँ अध्याय महारास का है, जहाँ लीला के आध्यात्मिक संकेत हैं (33:37)। समापन अंश में रास को कृष्ण की दिव्यलीला कहा गया है, जहाँ कृष्ण अपनी योगमाया से जीवात्मा गोपिकाओं को सुख देते हैं। रासलीला के इन आध्यात्मिक संकेतों के मूल में यह प्रयोजन है कि इस प्रसंग को शरीरवाद से जोड़कर न देखा जाय। चीर-हरण आदि ऐसे ही प्रकरण हैं, जिसका अभिप्रेत है, आच्छद की समाप्ति और जीव तथा चिन्मय कृष्ण का भावात्मक मिलन, जिसमें कृष्ण स्थितप्रज्ञ की स्थिति में हैं। प्रसंगों की उदात्त व्याख्या प्रतिभा की माँग करती है, जिससे लीला को सही संदर्भ में देखा जा सके।
समाजदर्शन की दृष्टि से कृष्ण की लीलाएँ-माखन-चोरी, वृंदावन गो-चारण, रासलीला आदि का सामाजिक पक्ष अधिक विचारणीय है, जिसमें अतिरिक्त आध्यात्मिक आरोपण की अनिवार्यता नहीं है। प्रेम और शृंगार भाव कृष्ण के मानुषीकरण से संभव हुए हैं और सूर अपनी पूरी रागात्मकता से इनमें रुचि लेते हैं। वे इसके माध्यम से कृष्ण और गोपियों के राग-भाव को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाते हैं और भागवत की रासपंचाध्यायी को अपने ढंग से व्याख्यायित करते हैं। आरंभ में प्रकृति का रमणीय परिवेश है-शरद-निशा, यमुना-तट, परम उज्ज्वल रात्रि, कुसुमित प्रसून, सुंदर बयार आदि। इस पीठिका में कृष्ण का मुरली-वादन, गोपिकाओं के लिए वशीकरण है : सुनहु हरि मुरली मधुर बजाई, मोहे सुर-नर-नाग निरंतर, ब्रज बनिता उठि धाई (1608)। मुरली के लिए कई पद रचे गए हैं, क्योंकि वह कृष्ण के व्यक्तित्व में गुण-बोधक है। मुरली का निमंत्रण ऐसा कि गोपिकाएँ विवश-निरुपाय हो जाती है और सूर ने विस्तार से उस मनादेशा के गतिमान चित्र बनाए हैं, जिसमें ब्रज-बनिताएँ मुरली-ध्वनि सुनकर, दौड़ पड़ती हैं (1611)। यहाँ कवि का आशय लोक-संबंधों का अतिक्रमण है, जिसके लिए भक्तिकाव्य में मीरा का विशिष्ट स्थान है : मेरो तौ गिरधर गोपाल दूसरो न कोई रे, जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई रे। सूर की गोपिकाएँ कुल-कानि मर्यादा का अतिक्रमण करती हैं (1614) :
सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 145