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से सूर दैन्यभाव से कृष्णलीला की ओर आए, तो यह तथ्य उल्लेखनीय है कि लीला-गान में उपास्य और उपासक की बराबर की साझेदारी है। दान-प्रतिदान भाव उनके संबंधों को ऐसी प्रगाढ़ता देता है, जो अन्यत्र विरल है। कृष्ण स्वीकारते हैं कि ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं। सूर के प्रार्थना-भाव में तुलसी की विनयपत्रिका जैसा परिष्कारकामी विनय-भाव नही है, जिसे प्रपत्ति, समर्पण से संबद्ध किया जाता है। इसके लिए वे राधा-गोपी-ग्वाल-बाल-यशोदा को माध्यम बनाते हैं, जिनकी भावनाओं में भक्ति के उपादान संयोजित हैं, वात्सल्य से लेकर श्रृंगार तक।
कहा जाता है कि कृष्ण के वात्सल्य, श्रृंगार ने सूर की सामाजिक चेतना को सीमित कर दिया और उनमें जीवन-यथार्थ के प्रवेश के अवसर नहीं हैं। गोपियों का प्रेमभाव इतना प्रगाढ़ हो गया है कि वास्तविकता के लिए गुंजायश कम रह जाती है। सूर की गीतात्मकता ने भी यथार्थ जीवन की मुखर अभिव्यक्ति को बाधित किया। इस प्रकार सूर की रचनाशीलता को लगभग यथार्थ-विरहित कहने की भूल की जाती है। प्रश्न है कि कैसा-कौन-सा यथार्थ ? हम इस पर समग्रता से विचार करेंगे, पर सैद्धांतिक प्रश्न यह कि मध्यकालीन सामंती समाज को कवियों ने एक ही कोण से देखा-परखा नहीं है। उसे व्यक्त करने की पद्धतियाँ तो अलग-अलग हैं ही, उसके प्रति कवियों की दृष्टि भी एक-सी नहीं है। यह संभव नहीं कि एक ही समय में उपस्थित सार्थक भक्त कवियों में किसी की बनावट यथार्थवादी हो, और अन्य की पूर्णतया अयथार्थवादी। सूर का मार्ग दूसरा है और लोक-जीवन की दृष्टि से वे जायसी के समीपी हैं। जायसी में अवध जनपद अपनी लोकछवि में उपस्थित है और सूर में ब्रजमंडल अपने राग-रंग में समाया है, जिसकी चर्चा यथा-स्थान की जाएगी। इसी प्रकार यह प्रश्न भी कि जिस कृष्णगाथा और उससे संबद्ध चरित्रों को सूर ने लिया है, उन्हें अपनी सर्जनात्मक कल्पना से क्या रूप देना चाहा है।
__ कृष्ण सूर के काव्य-नायक हैं, जिनकी परंपरा प्राचीन है, पर मध्यकाल तक आते-आते उनके स्वरूप में कई परिवर्तन हो चुके थे। वैदिक युग के सर्वोपरि देव इन्द्र, (जिन्हें देवेन्द्र भी कहा गया) का स्थान विष्णु को मिला, जिनके दो प्रमुख अवतार राम और कृष्ण हैं। कृष्ण को केंद्र में रखकर सूर जो लीला-चक्र रचते हैं, उसका सर्वाधिक उल्लेखनीय पक्ष है, कृष्ण का पूर्ण मानुषीकरण। देवत्व की मानव रूप में कल्पना पुराण युग में भी सक्रिय थी, पर सूर के कृष्ण अधिक खुली भूमि पर हैं
और कवि कोई ऐसी बाध्यता नहीं देखता कि बार-बार उनके देवत्व का संकेत भी करता चले, अथवा बाह्यारोपण का अध्यात्मवादी प्रयास किया जाय। कृष्ण का मानव-रूप में अवतरण स्वयं में प्रीतिकर है और उनके माध्यम से कृष्ण-लीला आह्लादकारी। भक्तिशास्त्र रचने का प्रयत्न करने वाले मनीषियों ने भागवत का आधार लेते हुए कहा है कि ईश्वर की लीला मनुष्य के कल्याण के लिए है और वे स्वयं उसमें लिप्त नहीं होते। ईश्वर का जीव के प्रति यह जो प्रेम-भाव है, वही लीला का
138 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन