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संकेत भी प्रतिपादित होते रहने चाहिए और एकादश स्कंध में भक्तजन-लक्षण, सत्संग-महिमा, भक्ति-योग, वर्णाश्रम व्यवस्था, भक्ति-ज्ञान-कर्म आदि का विवेचन है। भागवत में महारास के आरंभ में कृष्ण को योगेश्वर कृष्ण कहकर संबोधित किया गया है (10-33-3)। उन्हें 'भगवांस्ताभिरात्मारामोऽपि लीलया' कहा गया है-आत्माराम भगवान (वही 20)। पर सूर के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं कि आध्यात्मिक संकेत आरोपित करें; वे प्रेम को उच्चतम भूमि पर स्थापित कर, उसे भक्ति में पर्यवसित करते हैं। इस प्रकार सूर को भागवत-प्रस्थान और वल्लभाचार्य के मतवाद से किंचित् पृथक् भूमि पर ले जाकर देखना उचित होगा। जो कुछ है, वह कवि के संवेदन-जगत में विलयित है। वल्लभ-दर्शन से सूर ने जो वैचारिक आधार प्राप्त किया, उसे उन्होंने अपनी भक्ति-चेतना में संयोजित किया, इसलिए उसकी पृथक् उपस्थिति की खोज अप्रासंगिक हो जाती है। कृष्णकाव्य को उदार मानवीयता की ओर ले जाते हुए, सूर उसे ऐसी रागात्मकता से संपन्न करते हैं कि वहाँ पूरा परिदृश्य सहज और विश्वसनीय प्रतीत होता है, चेतना का समीपी। जायसी को 'प्रेम की पीर' का कवि कहा जाता है, पर वास्तविकता यह है कि सूर का प्रेम-भाव खुली भूमि पर संचरित होकर अधिक व्यापक बनता है : कृष्ण के बालजीवन से लेकर रास-तीला और मथुरा-गमन तक। वार्ता के आधार पर यह भी कहा जाता है कि वल्लभाचार्य ने सूरदास को श्रीनाथ मंदिर में अष्टयाम के लिए पद-गायन का आदेश दिया था। अष्टयाम हैं : मंगल, शृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थान, भोग, आरती और शयन।
सूरसागर के पूर्व कृष्णगाथा की परंपरा है, जिसके प्रस्थान रूप में भागवत को स्वीकार किया जाता है, जिसका वर्तमान रूप कभी छठी-नौवीं शताब्दी के बीच स्थिर हुआ। इसी समय दक्षिण के आलवार संत सक्रिय थे जिन्होंने कृष्ण की तल्लीन भक्ति से लोकप्रियता प्राप्त की। कृष्ण-कथा कहना उनका उद्देश्य नहीं है, मूलतः वे भाव-तन्मयता के कवि हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश से होती हुई कृष्णकाव्य परंपरा हिंदी में प्रवेश करती है और हाल की ‘गाहा सतसई' (गाथा सप्तशती) का विशेष उल्लेख किया जाता है, जिसमें श्रृंगार की प्रमुखता है। जयदेव का गीतगोविन्द राधा-कृष्ण-संबंधों को लौकिक भूमि पर प्रतिष्ठित करता है, जिससे कृष्णकाव्य में नई संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। इस दृष्टि से कि उन्हें देवत्व से अलगाकर अधिक खुली मानवीय भूमि पर लाया जा सकता है, यद्यपि इससे रीतिकालीन दुर्घटना भी हुई कि राधा-कृष्ण स्मरण का बहाना बनकर रह गए, उन्हें नायक-नायिका रूप दिया गया। सूरसागर का कौशल यह कि यहाँ कथा कहना सूर का मुख्य प्रयोजन नहीं और अधिकांश अवसरों पर वे अवर्णनात्मक हैं। प्रेम-लीला का रागात्मक चित्रण उनकी अभीप्सा है, जिस माध्यम से वे भक्ति-भावना की नियोजना करते हैं। कृष्ण की लीलाएँ यहाँ प्रमुखता प्राप्त करती हैं और उन्हें गीतात्मकता के माध्यम से व्यक्त किया गया है। कथा-सूत्र के क्रम-स्थापन में वर्णनात्मकता का सहारा लिया गया है, जो कवि
136 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन