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सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार
सूरदास हिंदी भक्तिकाव्य के सबसे रागात्मक स्वर कहे जा सकते हैं। उन्होंने कृष्ण के जीवन की पूर्व-गाथा को अपने काव्य का विषय बनाया-वात्सल्य, श्रृंगार को प्रमुखता दी। महाभारत के सुदर्शनचक्रधारी कृष्ण उनके संवेदन का विषय नहीं बन सके। भागवत संपूर्ण भक्ति साहित्य का प्रस्थानग्रंथ है और उसे प्रस्थानत्रयी के क्रम में चतुर्थ प्रस्थान कहा गया। पर सूर भागवत का कथानक-आश्रय लेकर भी उसमें नई उद्भावनाएँ जगाते हैं, यह उनकी मौलिक सर्जन क्षमता का प्रमाण है। उन्होंने पारंपरिक रीति से कथा-वाचन नहीं किया और वर्णनात्मकता के स्थान पर भाव-संवेदन का आधार ग्रहण किया। गीतिकाव्य, पदशैली के माध्यम से कृष्ण के व्यक्तित्व को उजागर किया गया, यह स्वयं में एक अभिनव प्रयत्न है। सूर के काव्य के साथ संपूर्ण न्याय नहीं हो सका, यद्यपि आचार्य रामचन्द्र ने सूरसागर को रससागर कहा, पर उनका वैशिष्ट्य सीमित कर दिया कि 'वात्सल्य और शृंगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आँखों से किया, उतना किसी और कवि ने नहीं' (सूरदास, पृ. 123)। आचार्य शुक्ल ने प्रबंधात्मकता को काव्य-निकष माना, इसलिए तुलसी उनके लिए सर्वोपरि हैं। सूर के भक्तजन ने उन्हें भागवत, वल्लभ-संप्रदाय के भाष्यकार के रूप में देखा और उनके काव्य-मर्म को उद्घाटित करने का प्रयत्न कम हुआ। प्रगतिवादियों की समस्या पर्याप्त समय तक यह थी कि उसमें समय-समाज को खोजने की कठिनाई थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से लेकर, शोधप्रबंधों से होती हुई, मैनेजर पाण्डेय तक, सूर-समीक्षा की यात्रा है। पर सूर के नए विवेचन की संभावना अब भी बनी हुई है कि मध्यकाल में रचना करते हुए, क्या उनके लिए यह संभव है कि वे उससे पूर्णतया पलायन कर जायें ? और इसी से जुड़ा प्रश्न यह भी कि अपने समकालीन समानधर्मा भक्त कवियों की तरह काव्य-मूल्य के रूप में कोई समाजदर्शन
134 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन