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वर्णन के कारण जब कथा रुक-ठहर जाती है, तब कवि बीच-बीच में अपने उदारपंथी मंतव्य को प्रकाशित करने का अवसर निकाल लेता है। ऐसे प्रसंगों में कवि के दोहे विशेष रूप से विचारणीय हैं, जैसे वह अपने मंतव्य को रेखांकित करना चाहता है। परमानंद श्रीवास्तव ने जायसी के लिए 'लोकभाषा में संभव होने वाली कविता' का प्रयोग किया है : 'धार्मिक विश्वासों के कवि को जब हम ठेठ लोकानुभव में विश्वासों के ऊपरी भेद को विचलित करते हुए देखते हैं, तब हमें उसकी काव्य-संभावनाओं का पता लगता है। अनगढ़पन में माधुर्य की प्रतिष्ठा करके जायसी ने अपनी लोकदृष्टि के साथ कवि-दृष्टि का प्रमाण भी दिया है' (जायसी, पृ. 44)। जायसी स्वयं को अतिक्रांत कर एक सार्थक कवि बनते हैं, इस अर्थ में कि वे इस्लाम को पार करते हैं, वृहत्तर सांस्कृतिक मेल-जोल की धारा में स्वयं को प्रवाहित करते हैं। इसके लिए वे भारतीय प्रेम कहानी का चयन ही नहीं करते, अपनी पूरी संलग्नता से उसका सफल निर्वाह भी करते हैं। अपनी लोकसंवेदना की अभिव्यक्ति के लिए वे जनपदीय लोकसंस्कृति का सक्षम उपयोग करते हैं और लोकभाषा के माध्यम से बहुजन समाज को संबोधित करते हैं। उनका उदार सूफी मत काव्यधारा में समरस होकर और भी विश्वसनीय बनता है, उसे कुछ उक्तियों में खोजना कोई अनिवार्यता नहीं, वह समग्र संवेदन-संपत्ति में उपस्थित है। 'पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु, जो देखा मन बझि' जायसी के समाजदर्शन का मूल स्वर है, जिसकी व्यापक अर्थ-ध्वनि है-व्यक्ति से लेकर समाज तक। इसमें मूल्यचिंता भी सन्निहित है, जिसे कवि का मानव-केंद्रित अध्यात्म भी कहा गया, पर मूलतः वह व्यापक प्रेम का उच्चतर मानवीय संसार है।
मलिक मुहम्मद जायसी : पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु / 133