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उनके पास है क्या ? है, तो कैसा ?
सूर की जीवन-रेखाओं के लिए प्रायः वल्लभाचार्य के पौत्र गोकुलनाथ के जीवनी साहित्य 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' का आधार लिया जाता है, जिसमें कुछ चमत्कारी घटनाओं का भी प्रवेश है। सूर ( 1478 - 1581 ) अपने समकालीन वल्लभाचार्य (1478-1530) द्वारा दीक्षित हुए थे, यह सर्वविदित है । सर्वाधिक विवाद सूर की जन्मान्धता को लेकर है, जिसका एक कारण स्वयं उनका नामकरण सूरदास भी है, जिसे नेत्रहीनों के लिए भी प्रयुक्त किया जाता है । इन शोधी विवादों को छोड़कर हम इस मूल बिंदु पर आते हैं कि वल्लभाचार्य के सिद्धांतों ने उन्हें किस रूप में प्रभावित किया। कहा जाता है कि यों तो रामानुजाचार्य की परंपरा के रामानन्द ने संपूर्ण हिंदी भक्तिकाव्य को प्रभावित किया, पर रामभक्ति उनसे विशेष प्रेरणा प्राप्त करती है। रामकाव्य के प्रस्थान में जो भूमिका रामानन्द की है, कृष्णकाव्य में वही वल्लभाचार्य की। वल्लभाचार्य के सिद्धांत पक्ष को 'शुद्धाद्वैत' कहा गया और साधना पक्ष को पुष्टि मार्ग | अद्वैत के साथ शुद्ध का प्रयोग कर वल्लभाचार्य ने स्थापना की कि परब्रह्म सच्चिदानंद रूप है और माया उसके वश में है, इसलिए वह शुद्ध है । कृष्ण परब्रह्म हैं, जो बैकुंठवासी हैं और जीव के सुख-कल्याण के लिए अवतरित होते हैं, जिसे उनकी 'लीला' कहा गया। पुष्टि का संबंध 'अनुग्रह' से है, जिसे भगवत्कृपा कहा जाता है। ईश के अनुग्रह से भक्ति पुष्टि होती है, जो रामानुज के प्रपत्ति-दर्शन का एक नया आयाम है। इससे प्रेम लक्षणा भक्ति का विकास होता है क्योंकि यहाँ ईशकृपा, ईशप्रेम ही काम्य है, मोक्ष नहीं । पुष्टि सबके लिए है, हर वर्ण, जाति, वर्ग के लिए, जिससे भक्ति को नया सामाजिक प्रस्थान मिला। सूर ने प्रेम-लीला को अपने काव्य का आधार बनाया, जो भक्तिकाव्य में विशिष्ट प्रदेय है और जिसमें आगे चलकर मीराबाई का नाम आता है। प्रेम का पर्यवसान निष्काम भक्ति में होता है जिसके आधार आनंदरूप कृष्ण हैं । गोपिकाएँ कहती हैं : 'ऊधो मन नाहीं दस बीस, एक तो सो गयो हरि के संग, को अराध तुव ईस ? (भ्रमरगीत, पद 210 ) ।
भागवत भक्ति का प्रस्थानग्रंथ है, पर सूरदास का विवेचन करते हुए, इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि वहाँ राधा अनुपस्थित हैं, जबकि सूर में वह समर्पित कृष्णप्रिया है, जिसके लिए 'परम गोपी भाव' विशेषण प्रयुक्त किया जाता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में : 'भारतवर्ष के किसी कवि ने राधा का वर्णन इस पूर्णता के साथ नहीं किया । बाल - प्रेम की चंचल लीलाओं की इस प्रकार की परिणति सचमुच आश्चर्यजनक है। संयोग की रस-वर्षा के समय जिस तरल प्रेम की नदी बह रही थी, वियोग की आँच में वही प्रेम सांद्र - गाढ़ हो उठा। सूरदास की यह सृष्टि अद्वितीय है। विश्व-साहित्य में ऐसी प्रेमिका नहीं है - नहीं है ' ( सूर - साहित्य, पृ. 111 ) । सूरदास ने राधा को प्रेमलक्षणा भक्ति के सर्वोत्तम माध्यम के रूप में चुना, गोपिकाओं से किंचित् पृथक् भूमि पर रखते हुए । भागवतकार सजग हैं कि लीला के आध्यात्मिक
सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 135