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है. उसकी पूर्ति बारहमासा करता है, चाहे उसे आंशिक ही कहा जाय। पद्मावती का एक पक्ष है-अनिंद्य सौंदर्य का, तो नागमती नारी का दूसरा पक्ष प्रस्तुत करती है, पतिव्रता की पीड़ा का। सामान्य लोक की उपस्थिति उसे मार्मिकता देती है, जिसे जायसी की संवेदन-सामर्थ्य तो माना ही गया है, पर समाजदर्शन की दृष्टि से नारी के प्रति कवि की यह उदार दृष्टि है। मध्यकालीन संदर्भ में यह रेखांकित करने योग्य है और लगता है जैसे जायसी देहवाद को नकारते हुए दो प्रतिनिधि नारी-चरित्र रच रहे हैं, जिन दोनों में प्रेम की भूमिकाएँ हैं, पर पृथक् रीति से। इसीलिए पद्मावत के अंत में सती खंड में जायसी पद्मावती-नागमती का पार्थक्य ही मिटा देते हैं : दवौ सवति चढ़ि खाट बईठी। नागमती-वियोग के संदर्भ में जायसी के बहुउद्धृत दोहे कवि की क्षमता के प्रमाण हैं। पहला नागमती के निवेदन से संबंधित है और दूसरा उसके संपूर्ण राग-भाव से, जिसमें अंतिम आकांक्षा भी प्रिय-मिलन की है :
पिउ सौं कहेहु संदेसड़ा, हे भौंरा, हे काग। सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग।
यह तन जारौं छार कै, कहौं कि पवन उड़ाव
मकु तेहि मारग उड़ि परै, कंत धरै जहँ पाव। कवि माखनलाल चतुर्वेदी की 'एक पुष्प की अभिलाषा' की समापन-पंक्तियों का स्मरण हो आता है, जहाँ सारे लोभ नकारते हुए, कवि बलिपंथी भाव का वरण चाहता है : मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक । 'नागमती संदेश खंड' में स्थिति है : 'नागमती दुख बिरह अपारा, धरती सरग जरै तेहि झारा।' नागमती का त्याग-भाव मध्यकालीन नारी के प्रति जायसी की सात्त्विक मूल्य-दृष्टि से संबद्ध है। उसे केवल गोरखधंधा से जोड़कर देखा जाना, नारी के साथ न्याय नहीं होगा। राजा रत्नसेन को सुविधा हो सकती है दो नारियों के साथ प्रेम निबाहने की, पर नागमती सर्वांग भाव से समर्पित है, एक प्रकार से उन्हें क्षमा करती हुई। यह है भारतीय नारी का वैशिष्ट्य जिसे सामंती समाज के संदर्भ में देखा जाय तो नारी-व्यक्तिव की गरिमा और भी उजागर होगी। इस्लाम में सती की अवधारणा नहीं, पर जायसी नागमती की व्यथा को सम्मान देते हुए उसके प्रेम की सराहना करते हैं। अपना नाम भी इस दोहे में सम्मिलित करते हैं और उसे पूरा मान देते हैं। पद्मावती का रूप प्रकृति को प्रभावित करता है, रूपांतरण होता है, पर नागमती की पीड़ा में भी प्रकृति सहभागिनी है : तेहि दुख भए परास निपाते, लोहू बूड़ि उठे होइ राते। जायसी की सराहना है :
गिरि, समुद्र, ससि, मेघ, रवि सहि न सकहिं वह आगि।
मुहमद सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि। राजा रत्नसेन सामंती समाज की उपज है, पर कवि ने उसके उन्नयन का
मलिक मुहम्मद जायसी : पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु / 127