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सहभोक्ता हैं। संयोग में ऋतु का सुख है, पर नागमती की दशा है : जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्ब ।
सखि मानें तिउहार सब गाइ देवारी खेलि हौं का गाव कंत बिनु, रही छार सिर मेलि । बारहमासा निमित्त है, परंपरा - पालन का, जिसके माध्यम से जायसी नारी के करुण पक्ष को प्रस्तुत करना चाहते हैं, पर यहाँ उल्लेखनीय है लोकतत्त्वों की उपस्थिति । वाल्मीकि का सूक्ष्म प्रकृति- निरीक्षण, कालिदास का शृंगार भाव, तुलसी के नैतिक निष्कर्ष से जायसी अधिक मानवीय भूमि पर हैं, सामान्य नारी का पक्ष लेते हुए, और इसे उन्होंने पूरी मार्मिकता से व्यक्त किया है । बारहमासा के ठीक पहले षट्ऋतु वर्णन में जायसी ने पद्मावती के माध्यम से ऋतुओं का उपयोग संयोग शृंगार के लिए किया है, पर वह नागमती के बारहमासा की तुलना में यांत्रिक हैं : प्रथम वसंत नवल ऋतु आई, सुऋतु चैत बैसाख सोहाई आदि । इसकी तुलना में नागमती - प्रसंग करुण एवं मार्मिक है, जिसे प्रगाढ़ बनाने के लिए कवि ने लोकसंस्कृति का सक्षम उपयोग किया है। पूरा दृश्य कवि की लोकोन्मुखता को उजागर करता है : बरसै मघा झकोरि झकोरी, मोर दुइ नैन चुवैं जस ओरी; चहूँ खंड लागै अँधियारा, जौं घर नाहीं कंत पियारा; बरसै मेह चुवहिं नैनाहा, छपर - छपर होइ रहि बिनु नाहा । बारहमासा के समापन अंश में जायसी कहते हैं : रोइ गँवाए बारहमासा, सहस सहस दुख एक-एक साँसा । नागमती जीवित है, इस आशा में कि प्रिय आएगा और वह बार-बार प्रार्थना करती है कि प्रिय लौट आओ, दुख सुख में बदल जाएगा :
कल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गएउ सुखाइ अबहुँ बेलि फिर पलुहै, जो पिउ सींचै आइ ।
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जायसी का प्रयोजन बारहमासा वियोग-वर्णन के माध्यम से जिस नारी- पक्ष को प्रस्तुत करना है, उसमें कवि सम्मिलित है । जैसे पद्मावती का रूप चित्र बनाते हुए, जायसी निरपेक्ष नहीं हैं, उनकी सौंदर्य-दृष्टि पूरी क्षमता में उपस्थित है । यहाँ वे मध्यकालीन नारी को साधारण देहवाद से हटाकर, उसे ज्योतिरूप प्रस्तुत करते हैं, ‘पारसमणि' कहते हुए, जिसके प्रभाव में प्रकृति भी है । वह साधारण सौंदर्य राशि नहीं, अद्वितीय है, अपने समग्र वैभव में, इसलिए वह सरूपा रूप है, परम अपरूप : सहज किरन जो सुरुज दिपाई, देखि लिलार सोउ छपि जाई । इसी प्रकार नागमती में जायसी अपनी संलग्नता से उपस्थित हैं क्योंकि जिसे 'प्रेम की पीर' कहा जाता है, उसे व्यक्त करने के लिए कवि के पास एक अवसर है, और वह उसका उपयोग करना चाहता है । वैयक्तिक पीड़ा में प्रकृति को सम्मिलित कर जायसी उसे व्यापकत्व देते हैं, सघनता तो उसमें है ही । गहराई और विस्तार का जो प्रश्न उठाया जाता
126 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन