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मुख राता तन हरियर, कीन्हें ओहूं जगत लेइ जावं ।
एक दृष्टि से हीरामन सुग्गा प्रेम के बीजारोपण का कर्ताधर्ता है और रत्नसेन-पद्मावती दोनों के हृदय में वह प्रेम का बीज - वपन करता है, उसके अंकुरण में सहायक है । जब भी आवश्यकता हो, वह छाया की तरह पूर्वार्द्ध में उपस्थित है, सक्रिय दायित्व निभाते हुए । फारसी काव्य में पक्षी प्रेमी-प्रेमिका के मध्य संदेश वाहक होते थे, पर जायसी का हीरामन मध्यस्थ नहीं, वह प्रेम-भाव का विवेक संपन्न व्याख्याता और संचालक है । पद्मावती के रूप-वर्णन में वह कुशल है, नासिका का वर्णन करते हुए स्वयं को लज्जित मानता है: नासिक देखि लजानेउ सूआ, सूक आइ बेसरि होइ ऊआ । सुआ जो पिअर हिरामन लाजा, और भाव का बरनौं लाजा । हीरामन की अर्थ-ध्वनियाँ गहरी हैं : पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा, मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा । सुगंधित पुष्प भी आशा करते हैं कि पद्मावती की 'तिल पुहुप संवारी' नासिका किसी दिन हमें पास लाकर थोड़ा स्पर्श देगी। हीरामन पक्षी होकर भी, जायसी के समाजदर्शन को व्याख्यायित करता है - प्रेम - सौंदर्य के प्रभावी चित्र बनाते हुए ।
कथा के माध्यम से काव्य-रचना में आशय की अभिव्यक्ति की सुविधा होती है । वर्णनात्मक प्रसंगों में, पात्रों को गढ़ते हुए, कवि अपने विचार व्यक्त करता चलता है । जायसी में कबीर - तुलसी की तरह मध्यकालीन समय-समाज अपने पूरे यथार्थ में नहीं आ पाता और उन्होंने दूसरी राह का चुनाव किया। जिस उदार सूफी मत से वे संबद्ध थे, उसमें आक्रोश के लिए गुंजायश भी कम थी और उन्होंने अपनी रागात्मकता में लोकजीवन की छवियों का प्रवेश कराया, जिसमें वे स्वयं भी रचे-बसे थे। यदि कहा जाता है कि सूर में ब्रजमंडल अपनी पूरी जनसंस्कृति में उजागर हुआ है विशेषतया ग्वाल- जीवैन, तो जायसी में अवध की जनपदीय लोकसंस्कृति अपनी रंगमयता में आई है। जायसी में कई विवरण जानकारी के आधार पर हैं, जैसे राज-भोज सामग्री, राज-दल आदि, जिनका संबंध उच्च सामंती समाज से है । पर उनकी चेतना संलग्न होती है, लोकजीवन के दृश्य बनाने में, जहाँ वे अपनी रागात्मकता के साथ हैं। गाँव के आत्मनिर्भर समाज में कृषि के साथ कई छोटे-मोटे काम हैं, पर जायसी बीच-बीच में जो संकेत करते हैं, वे भी विचारणीय हैं । कुम्भकार में वे आदि-निर्माता की छवि देखते हैं, सुंदरियाँ प्रसून-वाटिका प्रतीत होती हैं; नैहर भारतीय नारी को बहुत प्रिय है (मानसरोदक खंड, रत्नसेन बिदाई खंड आदि) पर उसके छूटने की पीड़ा भी है । प्रश्न है कि इसकी सांकेतिक व्यंजना को किस रूप में लिया जाय, जैसे कबीर का पद : 'बाबुल मोरो नैहर छूटो जाय' जिसमें इस प्रकार के संकेत हैं। जायसी में लोकसंस्कृति उनके अभीप्सित संसार के अनुरूप है, जहाँ लोकोत्सव राग-रंग के प्रतीक होते हैं : ग्राम-जीवन में वसंत, होली, दीपावली आदि । जायसी ने 'वसंत खंड' में प्रकृति - शोभा का वर्णन किया है और उस पीठिका पर पद्मावती के साथ सखियाँ उपस्थित हैं : वै वसंत सौं भूलीं, गा वसंत उन्ह भूलि । वसंतोत्सव है : झुंड बाँध
130 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन