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कै जोती. दइजहि जोति कहाँ जग ओती (ललाट); नैन बाँक सरि पूज न कोऊ, मानसरोदक उलछहिं दोऊ (नेत्र); नासिका देखकर स्वयं शुक (सुग्गा) लज्जित हो जाता है और पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा, मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा। पद्मावती बात कहती है तो फूल झरते हैं और विहँसत जगत होइ उजियारा। दशन-पंक्ति ऐसी कि जेहि दिन दसनजोति निरमई, बहुतै जोति जोति ओहि भई। पद्मावती का वैशिष्ट्य है, उसका चिरंतन प्रसन्नवदना रूप, वह सहज स्वभाव है : जहँ जहँ विहँसि सुभावहि हँसी, तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी। रसना (वाणी) 'अमृत-बैन' संपन्न है जो प्रेम रस बोलती है। नखशिख के कुछ प्रसंगों में अतिरंजना भी है और अतिरिक्त खुलापन भी। पर जायसी सजग हैं कि पद्मावती विशिष्ट सौंदर्य है, इसलिए वे उसके व्यापक प्रभाव का संकेत भी करते हैं :
देखि अमिय-रस अधरन्ह, भएउ नासिका कीर पौन बास पहुँचावै, अस रम छाँड़ न तीर।
हँसत दसन अस चमके, पाहन उठे झरक्कि
दारिउँ सरि जो न कै सका, फाटेउ हिया दरक्कि। प्रायः प्रेम नेत्र से आरंभ होता है, पर जायसी ने इसे श्रवण से संबद्ध करके देखा। हीरामन सुग्गा पद्मावती का जो रूप-वर्णन करता है, उसी से रत्नसेन में राग-भाव का उदय होता है। वह योगी हो जाता है और समस्त बाधा-विघ्नों को पारकर पद्मावती के पास पहँचता है। जायसी क्या संकेत करना चाहते हैं ? यही कि विशिष्ट सौंदर्य लोक का होकर भी, अपनी गुणवत्ता में विशिष्ट है, उसे प्राप्त करने के लिए साधना करनी होगी-इश्क मिज़ाज़ी से इश्क हकीकी की ओर आना होगा। पद्मावती का रूप वर्णन राघव चेतन भी करता है (पद्मावती-रूप-चर्चा-खंड), और इसमें पूर्ववर्ती सौंदर्य-वर्णन की पुनरावृत्ति भी पर्याप्त मात्रा में हुई है, किंतु 'दृष्टि' का अंतर है। हीरामन पवित्र भाव से उस अपरूप रूप को बखानता है, रत्नसेन में पूर्वराग जन्माने के लिए, पर राघव चेतन में प्रतिकार भाव है और वह अलाउद्दीन को उत्तेजित करता है। वह स्वयं भी मर्माहत है और इसी श्रेणी में देवपाल भी आता है। जायसी ने सौंदर्य के प्रति निर्मल दृष्टि की प्रतिष्ठा की है, उसे प्रेम का आलंबन-आश्रय मानकर, जिसे सामंती वासना का प्रतिवाद कहना उचित होगा।
पद्मावती लोक-भूमि पर प्रतिष्ठित है, पर अपने गुण-धर्म में लोकोत्तर का संकेत भी करती है। उसका अपना सहज इच्छा-संसार है, जिसे कई खंडों में देखा जा सकता है। पद्मावती-रत्नसेन भेंट खंड में दाम्पत्य जीवन से संबद्ध प्रेम-वार्तालाप विस्तार से आए हैं। पर पद्मावती के रूप के विषय में जायसी 'मानसरोदक खंड' में जिस व्यापक प्रभाव की चर्चा करते हैं, वह सर्वाधिक उल्लेखनीय है। मानसरोदक विस्मय-विमुग्ध है, और यह है, सौंदर्य की सामाजिक स्वीकृति :
122 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन