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बरनों राजमंदिर रनिवासू, जनु अछरीन्ह भरा कविलासू । सोरह सहस पदमिनी रानी, एक एक तैं रूप बखानी । मानसरोदक खंड के आरंभ में सौंदर्य - वाटिका ( फुलवारि) के रूप में पद्मावती की सखियों का बखान करते हुए जायसी चंपा, कुंद, सुकेत, रसबेलि, मौलश्री, जुही, सेवंती, केसर, चमेली, कदम्ब आदि फूलों की उपमा का उपयोग करते हैं । यह सामंती परिवेश चित्तौड़गढ़ वर्णन खंड में भी है, जहाँ राजा रत्नसेन की सोलह सौ दासियों की बात कही गई है, जिनमें से चौरासी चयनित हुई हैं, अलाउद्दीन की परिचर्या के लिए । यहाँ भी जायसी ने 'फुलवारि' शब्द का प्रयोग किया है - जिनके वर्णन में स्वच्छंद भूमि है : यौवनारम्भ, नेत्र - बाण, कटाक्ष-संपन्न : काम कटाछ इनहिं चित हरनी, एक एक तें आगरि बरनी । भोज - वर्णन में भी सामंती विलास की छाया है ।
जायसी में मध्यकाल उस प्रकार से अपने यथार्थ रूप में नहीं आ सका, जिसके लिए कबीर का उल्लेख किया जाता है और तुलसी के कलिकाल - वर्णन का भी । जायसी ने दूसरा रास्ता चुना, उन्होंने स्वयं को लोकजीवन से जोड़ा, विशेषतया ग्राम-समाज से। उसमें भी उनकी रुचि उस लोकसंस्कृति में अधिक है, जिसके विषय में कहा जाता है कि मध्यकालीन ग्राम-समाज स्वयंसंपूर्ण इकाई था और राजसत्ता की मुख्य धारा से पृथक् था, जिसका प्रतिनिधित्व नगर- समाज करता था । हर कवि की अपनी प्रवृत्ति होती है और उसी के अनुसार कविता विकसित होती है । जायसी का संवेदन अपने आस-पास के लोक जीवन में रमता है और यहाँ वे वर्णनात्मकता से आगे निकलकर रागात्मक होते हैं । वे अवध जनपद के कवि हैं, ग्राम - जीवन में रचे-बसे और पद्मावत में इसका उपयोग उन्होंने प्रामाणिकता से किया है । उद्धरणों के सहारे अवध के लोकजीवन के दृष्टांत प्रस्तुत करने का कार्य शोधार्थियों ने किया है : जाति, व्यवसाय, कृषि, उद्योग, संस्कार, लोक-प्रचलित विश्वास, आचार-विचार, उत्सव आदि । इनके विवरण में जाना अनिवार्य नहीं, पर यहाँ जायसी कई बार असंग भी दिखाई देते हैं, परंपरा का निर्वाह करते हुए, पर जहाँ वे संलग्न होते हैं, वहाँ दृश्य प्रभावी बनते हैं । कविता में सूचनाएँ अधिक अर्थ नहीं रखतीं, उन्हें संवेदन से जोड़कर किसी दृश्य अथवा अर्थ में बदलने का कौशल काव्य-कला है । जायसी ग्राम - जीवन को जानते हैं और उसके माध्यम से अपने अभीप्सित आशय का संकेत भी करते हैं । प्रकृति का ग्राम - परिवेश तो है ही, अपने सुख-दुख के साथ : चैत-वसंता होइ धमारी; फागु करहिं सब चांचरि चोरी; फर-फूलन सब डार ओढ़ाई आदि । षट् ऋतु-वर्णन खंड केवल काव्य-परंपरा का निर्वाह नहीं है, यहाँ जायसी ग्राम - जीवन - दृश्य उभारते हैं, जिसका आरंभ आचार्य शुक्ल द्वारा संपादित पद्मावत में मांगलिक पूजन से होता है : कलस मानि हौं तेहि दिन आई, पूजा चलहु चढ़ावहिं जाई । पार्वती - महेश- खंड को लोकप्रचलित विश्वास के रूप में देखना उचित होगा। हनुमान से यह सुनकर कि रत्नसेन ने पद्मावती के वियोग में अपने लिए चिता बनाई है, शंकर उसके तप से प्रसन्न होते हैं : कहैन्हि
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116 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन