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सफी दर्शन का प्रतिपादन करके भी संतुष्ट नहीं हो जाते और न केवल प्रेम-कथा कहना उनका प्रयोजन है। वे प्रेम को व्यापक मानवीय संदर्भ में प्रस्तुत करते हैं और उसे उच्चतम धरातल पर पहुँचाते हैं। जायसी अपनी सीमाओं से परिचित हैं कि अवध के साधारण किसानी परिवार से जुड़े हैं। सल्तनत काल के अंतिम और मुग़लकाल के आरंभिक दौर में (पानीपत युद्ध, 1526) वे उपस्थित हैं। शेरशाह (शासन : 1539-1545) का उल्लेख पद्मावत के स्तुति खंड में है : सेरसाहि दिल्ली सुलतान। लोदी राजवंश (1451-1526) से बाबर, हुमायूँ, शेरशाह तक का समय जायसी ने पार किया। निश्चय ही यह संघर्ष का समय था, जिसकी छाया काव्य में हो सकती है। पद्मावत में प्रेम के साथ संघर्ष की जो भूमिका है, वह इसी परिप्रेक्ष्य में देखी जानी चाहिए।
जायसी का काव्य-लक्ष्य क्या है, यह विचारणीय है क्योंकि इससे कवि की सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि और समाजदर्शन को जाना जा सकता है। जायसी अपनी सीमाओं के बावजूद आत्मविश्वास के कवि हैं, जिन्हें आत्मसजग भी कहा गया। रचनाकार के आत्मविश्वास के अपने आधार होते हैं, जायसी को अपने राग-भाव, संवेदन पर विश्वास है, जिसमें उनकी लोकदृष्टि की भी भूमिका है। यहाँ दर्शन-विचार भी हैं और कवि का प्रयत्न यह कि वह कथा से संयोजित हो जाय, पर कई बार ऐसा नहीं हो पाता, जैसे योग-शब्दावली का प्रयोग करते हुए। ऐसा तो नहीं है कि जायसी अपनी जानकारी का उपयोग करना ही चाहते हैं, जैसे सिंहल द्वीप का वर्णन करते हुए योग-शब्दावली का प्रयोग। इसका आशय सिंहलगढ़ की दुर्जेयता का बोध कराना है, जहाँ विशिष्ट सौंदर्य-संपन्न पद्मावती रहती है। उसे पाने के लिए विकट संघर्ष करना होगा, जिसे 'तप' कहा गया। पर योग-सूफ़ी की इस सम्मिलित विचारभूमि के बीच काव्य-पंक्तियाँ हैं, वृहत्तर जीवन-दर्शन का संकेत करती-मुहम्मद-जीवन-जल भरन, रहंट-घरी कै रीति, घरी जो आई ज्यों भरी ढरी, जनम गा बीति। जीवन का यही क्रम है; जीवन-जल का घरिया में भरना और ढल जाना। जायसी ने सिंहल द्वीप को सर्वोत्तम माना है, क्योंकि पद्मावती वहाँ वास करती है : एकौ दीप न उत्तिम, सिंघलदीप समीप। ऐसी स्थिति में वर्णनात्मकता का सहारा लेते हुए कह दिया कि वहाँ सभी कुछ है-वनस्पति, पक्षी, सरोवर, हाट आदि। यह विवरण-मोह हो सकता है, पर जायसी का गंतव्य जीवन की उच्चतम मूल्य-भूमि है, जिसका आधार मानवीय प्रेम है, जो अपनी उदात्तता में ऐसी उठान प्राप्त करता है कि आध्यात्मिकता के संकेत भी प्राप्त हों। पद्मावत में प्रेम का रागभाव पूरी कथा में अनुस्यूत है, जिसे कवि ने परिभाषित भी किया है, और रचना में प्रमाणित भी : प्रेम-फांद जो परा न छूटा, जीउ दीन्ह पै फांद न ट्टा (राजा-सुआ संवाद खंड); प्रेम-घाव दुख जान न कोई, जहि लागै जानै तै सोई (प्रेम-खंड); जेहि तन प्रेम, कहाँ तेहि मांसू, कया न रकत, नन नहिं आंसू (जोगी खंड); प्रेम-समुद्र जो अति अवगाहा, जहाँ न बार न पार न
मलिक मुहम्मद जायसी : पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु / 113