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लिए उन्होंने उलटवासियों तक का सहारा लिया, ताकि विचलन उत्पन्न हो क्योंकि वे झकझोरना चाहते हैं। कबीर का 'विज़न' उनके समाजदर्शन का सबसे सबल पक्ष है, जहाँ निषेध है सामंती समाज का, जिससे वे विक्षुब्ध हैं। पर वे कोरी नकारात्मकता के कवि नहीं हैं, सजग संत कवि हैं और विकल्प-स्वप्न प्रस्तुत करने की क्षमता रखते हैं। उनके आक्रोश में करुणा, असंतोष, साहस, विक्षोभ है, तो जो प्रतिसंसार वे सर्जित कर रहे हैं, उसमें उच्चतम मूल्य संसार है, जिसे आध्यात्मिकता कहा गया, पर रहस्यवाद के अंतर्गत परिगणित करने से एक क्रांतिकारी कवि की सतेज छवि धूमिल होती है। काव्य में अध्यात्म, लोक के भीतर से ही उपजता है और जिसे लोकोत्तर, ब्रह्मानन्द, महासुख अथवा किसी भी ऐसे उच्चतम आशय के शब्द से व्यंजित किया जाता है, वह लोक के अतिक्रमण से निर्मित सर्वोत्तम सोपान है। आखिर मनुष्य ही गुणसमुच्चय होकर देवत्व की कवि-कल्पित भूमि पर पहुंचते हैं। कबीर ने अपनी आध्यात्मिकता को 'ऋतुराज' कहा है, जिसमें सभी देवताओं का उल्लेख है और जो मानव-मूल्यों का उच्चतम धरातल है :
जहाँ खेलति वसंत ऋतुराज, जहाँ अनहद बाजा बजै बाज चहुँ दिसि जोति की बहै धार, बिरला जन कोइ उतरै पार कोटि कृष्ण जहँ जोरै हाथ, कोटि विष्णु जहँ नावै माथ
कोटिन ब्रह्मा पर्दै पुरान, कोटि महेश धरै जहँ ध्यान । कबीर में संत-कवि की सम्मिलित भूमि है, जिसे ध्यान में रखकर ही उनके समाजदर्शन को समझा जा सकता है और दोनों के संयोजन से वे सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका का निर्वाह करते हैं। संत उनका क्रांतिद्रष्टा रूप है, पर वे जानते हैं कि प्रवचन पर्याप्त नहीं होते, उन्हें आचरण का आधार देना होता है। कविता में विचारों को, संवेदन-संपत्ति बनाते हुए, वे अपने सांस्कृतिक दायित्व के प्रति सजग हैं और इसलिए वे अपना मुहावरा जीवन से सीधे ही प्राप्त करते हैं। यहाँ तक कि आध्यात्मिक आशय को भी दैनंदिन बिंबों-प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करना चाहते हैं, ताकि यथासंभव कवि का अभिप्राय संप्रेषित हो सके। समाज, राजनीति, परिवार, व्यवसाय में प्रयुक्त मुहावरों का वे मनोवांछित प्रयोग करते हैं और इससे अपने मन्तव्य को प्रेषणीय बनाते हैं। फाग, कबिरा हिंदी समाज में दूर-दूर तक प्रचलित हैं, जिनमें सामान्यजन की रुचि है और वे मौखिक परंपरा की मूल्यवान धरोहर हैं। कबीर की भाषा स्वतंत्र अध्ययन का विषय है, पर जिस ठेठ शब्दावली का प्रयोग उन्होंने किया है, वह आभिजात्य को चुनौती देती हुई, अपना विशिष्ट स्थान बनाती है और ऐसे अनुभव-अर्जित मुहावरे में लिखने वाले फिर नहीं आए। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर को 'वाणी का डिक्टेटर' कहते हुए, उनकी विरोधी प्रतीत होने वाली दिशाओं का उल्लेख करते हुए लिखा है : 'सिर से पैर तक मस्त-मौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचंड, दिल के साफ,
कबीर : जो घर फूंकै आपना चलै हमारे साथ / 10: