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पर स्थिर रहकर और कर्मकांड के किन
कर और कर्मकांड के तिरस्कार द्वारा ही वह यह समन्वय स्थापित कर
गीन वैष्णव संस्कृति और तुलसीदास, पृ. 72)। चौदहवीं शती में रामानन्द विचारक उदार चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह उदार पंथ नानक 100-1538) तक फैला हुआ है और इन सबसे मध्यकालीन सर्जनशीलता पुष्ट हई।
शकालीन समय, समाज, संस्कृति का रूप मिला-जुला है, कई प्रवृत्तियों का मिश्रण और सबको मिलाकर, यह वृत्त पूरा होता है जिसे भारत की मध्यकालीन
कति कहा जाता है। इस विषय में विद्वानों के विचारों में मतभेद रहे हैं, पर उसके महत्व को सबने स्वीकृति दी है। सबके सम्मिलित सहयोग से जो सामासिक संस्कृति मध्यकाल में निर्मित हुई, उसमें उदार शासकों से लेकर उन सामाजिक सुधारक संतों-भक्तों की भूमिका है, जो अपने परिवेश को उदात्त मानवमूल्यों से संबद्ध करके देखना चाहते थे। निर्माण आदि का अपना स्थान है, पर चिंतन की भूमि पर जो नया उदार परिवेश बना उसने मध्यकालीन ऊर्जा को नई दिशाओं की ओर अग्रसर किया जिससे विचार, साहित्य-कला का ऐसा संसार रचा गया, जो निरंतर चर्चा के केंद्र में रहा है और जिसे भारतीय मनीषा के सर्वोत्तम अध्यायों में गिना जाता है। आरंभिक टकराहट के बाद जब पार्थक्य टूटा और संवाद की प्रक्रिया आरंभ हुई तो दोनों प्रमुख जातियों ने एक-दूसरे को जानने-समझने का प्रयत्न किया, सीखा, प्रभावित हुईं। बहुविवाह, पर्दा-प्रथा जैसी कुरीतियाँ भी आईं, पर उनका प्रचलन उच्च वर्ग में अधिक था। हिंदू सभ्यता ने इस्लाम को प्रभावित किया और सूफी कवियों ने भारतीय कथाओं पर काव्य रचे। हिंदू प्रथा के समान हमाy, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ के तुलादान हुए। विजयादशमी, दीपावली, वसंत, होली के उत्सव राजकीय स्तर पर स्वीकृत हुए; नौरोज़ मूलतः फ़ारस का उत्सव है-नववर्ष, वसंत का प्रतीक और दीवान-ए-आम के इस उत्सव का वर्णन तत्कालीन इतिहासकारों ने विस्तार से किया है (प्राणनाथ चोपड़ा : सम ऐसपेक्ट्स ऑफ़ सोसायटी एंड कल्चर ड्यूरिंग द मुग़ल एज, पृ. 5)। राजकीय स्तर पर जो प्रयत्न हुए, वे एक दर्ग विशेष तक सीमित थे, जिसे अभिजन समाज कहा गया, पर संत-भक्त साहित्य ने जनता को संबोधित किया और सांस्कृतिक संवाद को सार्थकता प्रदान की।
मध्यकालीन समय-समाज और संस्कृति / 49