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कबीर : जो घर फूंकै आपना चलै हमारे साथ
कबीर भक्तिकाव्य में एक व्यापक प्रभाव के संत कवि हैं, जिनकी व्याप्ति सुदूर अंचलों तक है-महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक। परवर्ती मराठी संत कवियों पर उनकी छाया है और गुरु नानक ने उन्हें सम्मानपूर्ण स्थान दिया है। कबीर के नाम पर पंथ-मठ निर्मित हुए, जिनमें छोटी कही जाने वाली जातियाँ सम्मिलित हुईं। प्रखर प्रवक्ता के साथ कई कठिनाइयाँ हैं और उनकी सही पहचान का कार्य सरल नहीं। जन्म से लेकर अवसान तक की उनकी जीवनगाथा कई प्रकार की किंवदंतियों से भरी हुई है, चमत्कार का संकेत करती। उनके चारों ओर ऐसा विचित्र ताना-बाना बुना गया कि वास्तविकता की पड़ताल का कार्य भी सरल नहीं रह गया। सबसे बड़ा संकट यह कि जिसे भक्तिकाव्य का सबसे विद्रोही-क्रांतिकारी स्वर कहा जाता है, उसी को केंद्र में रखकर मठ बने, जो प्रायः चिंतन की जड़ता के प्रतीक हो जाते हैं। एक प्रखर क्रांतिकारी के विचारों की ऐसी कर्मकांडी परिणति स्वयं में दुःखद विरोधाभास है। पर इस सबके बीच कबीर आज भी हमारे सबसे प्रासंगिक कवियों में हैं क्योंकि उन्होंने मध्यकालीन सामंती समाज को ललकारा था, जो द्वेष, अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, पुरोहितवाद, मिथ्याचार पर टिका था। इस प्रखरता ने भक्तिकाव्य को तो प्रेरित किया ही, आधुनिक समय में रवीन्द्रनाथ उनसे प्रभावित हुए और उन्होंने कबीर की सौ कविताओं का अनुवाद किया। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर और रवीन्द्र में समानांतर भावनाओं की खोज की है, विशेषतया प्रेमलीला के संदर्भ में, यद्यपि दोनों म पार्थक्य-रेखाएँ भी हैं। विजयदेवनारायण साही के कवितासंकलन का शीर्षक 'साखी' कबीर की प्रेरणा है और इसकी अंतिम कविताओं में संत कवि का प्रभाव है। साही सत, साधो को संबोधित करते हैं, बाजार में लुकाठी लिये लोगों की चर्चा है और जातम कविता है : 'प्रार्थना गुरु कबीरदास के लिए' : परम गुरु, दो तो ऐसी विनम्रता
कबीर : जो घर पूँकै आपना चलै हमारे साथ / 8.