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दो कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ और यह अंतहीन सहानुभूति, पाखंड न लगे। कबीर हरिशंकर परसाई के प्रेरणापुरुष हैं और उन्होंने 'सुनो भाई साधो', 'कबिरा खड़ा बाजार में' स्तंभ लिखे हैं। उनकी आत्मस्वीकृति है : 'कबीरदास का विद्रोह, अक्खड़पन, फक्कड़पन, सधुक्कड़ी भाषा, साफगोई, ठेठ मुहावरा-इन सबसे एक तरह से मैंने अपने को कबीर की परंपरा से ही जोड़ लिया' (तुलसीदास चंदन घिसैं)।
संतों की जीवन-रेखाएँ चामत्कारिक घटनाओं से जोड़ दी जाती हैं और वास्तविकता का पता लगाने में कठिनाई होती है। कबीर का जन्म प्रायः 1398 ई. स्वीकार किया जाता है और निधन 1518 में। इस प्रकार उन्हें एक सौ बीस वर्ष की लंबी आयु मिली थी। उनके गुरु रामानन्द थे, जिनका समय 1365-1468 है। इतिहास की दृष्टि से सैयद सुलतान (1414-1451) तथा लोदी वंश (1451-1526) का शासन था। कहा जाता है कि नीरू-नीमा जुलाहा-दंपति शिशु कबीर को काशी जनपद के लहरतारा तालाब के पास से उठा लाए थे और उन्होंने उनका पालन-पोषण किया। अवसान के विषय में प्रचलित कथा भी आश्चर्यकारी है कि कबीर ने निर्णय लिया कि काशी छोड़कर, पास के मगहर में अंतिम समय व्यतीत करेंगे। जीवन-भर सत्य के मार्ग पर चले, तो यदि मुक्ति मिलनी है तो कहीं भी मिलेगी : जो कबिरा कासी मरै, तो रामहि कौन निहोरा अथवा सकल जनम सिवपुरी गँवाइया, मरती बार मगहर को धाइयाँ । जुलाहा जाति के कबीर ने बुनकरों की शब्दावली का भरपूर उपयोग किया है, उससे रूपक-विधान की सृष्टि की है : जोलाहा बीनहु हो हरिनामा अथवा झीनी-झीनी रे बीनी चदरिया। कबीर जुलाहा जाति के थे, पर ऐसे उदारपंथी कि उन्होंने अपने विषय में कहा : 'ना हिंदू, ना मुसलमान।' भक्त की कोई जाति नहीं होती : संतन जात न पूछो निरगुनिया। कबीर का अवसान भी ऐसा कि उनके अंतिम संस्कार को लेकर हिंदू-मुसलमान दोनों झगड़ने लगे-एक शवदाह करना चाहता था, दूसरा कब्र में दफनाना। शव पर पड़ी हुई चादर उठाई गई तो देखा, वहाँ केवल कुछ फूल हैं, जिन्हें दोनों ने बाँट लिया और अपने-अपने ढंग से अंतिम संस्कार किया।
कबीर का जीवन कई विचित्र घटनाओं में घिरा है, जिससे चमत्कार का मायाजाल बुनने का प्रयत्न किया गया। पंथ-मठों ने इस विद्रोही चेतना का प्रयोग अपने-अपने ढंग से किया। स्वयं कबीर का रचना-कर्म कुछ सूत्र देता है, जिनसे उनकी रचनाशीलता के प्रेरक उपकरण समझे जा सकते हैं। जन्म-कथा कुछ भी हो, पर जुलाहा-दंपति द्वारा उनका पालन-पोषण कई दृष्टियों से विचारणीय है। बुनकरों की ऐसी जाति है जिसमें हिंदू-मुसलमान दोनों हैं-कोरी हिंदू कहलाए, जुलाहा मुसलमान । पर मूलतः कर्म-आधारित इस व्यवसाय में ऐसा जातीय विभाजन नहीं कि टकराहट हो। कर्म मनुष्य को जोड़ता-बाँधता है और धर्मपरिवर्तन होकर भी संस्कार बने रहते हैं, जिससे समीपता बनी रहती है। कबीर ने अधिकांशतया जुलाहा शब्द का प्रयोग किया है,
90 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन