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मध्यकालीन भारत एक विभाजित समाज है, इसका एहसास सजग कबीर को है। यायावरी वृत्ति से उन्होंने जो व्यापक अनुभव संचित किया था, वह पूँजी, वही उनकी संपत्ति। शास्त्र-ज्ञान में उनकी न रुचि थी, न आस्था और उनकी मान्यता है कि पुस्तकीय ज्ञान अधूरा है, कई बार जीवन की प्रवाहित धार से हम कट जाते हैं। केवल पुस्तकीय होना, जीवन-संवेदन की दृष्टि से दुर्बल होना है, और इससे जो अहंकार उपजता है, वह और भी घातक क्योंकि इसके साथ कई अन्य विकार आते हैं। कबीर का आग्रह 'अनुभव-ज्ञान' पर है और इस दृष्टि से वे जीवन-संसक्ति के कवि हैं। यदि पंक्तियों के बीच से गुज़रा जाय तो मिलेगा कि उनकी रचनाओं में मध्यकाल का सामान्य जनजीवन संकेतों-टुकड़ों में विद्यमान है : मन बनियाँ बाँनि न छोड़े, बहुबिधि बासन काढ़े कुंभारा आदि। लक्ष्मीचन्द ने अपनी पुस्तक 'कबीर
और जायसी : ग्राम-संस्कृति' में कबीर की ग्राम-जीवन-संबंधी दृष्टि का विवेचन किया है। कबीर विवरणों में कम जाते हैं, पर इसके मुहावरे का उपयोग वे अपने मनोवांछित आशय तक पहुँचने के लिए कुशलता से करते हैं। रूपक-विन्यास में विशेष रूप से उन्होंने इसे अपनाया है, जिससे सामान्यजन की स्थिति का बोध होता है। एक पद है : 'अब न बसू इहि गाउँ गुसाईं, जिसकी एक साथ कई अर्थ-ध्वनियाँ हैं। कवि अपने समय से क्षुब्ध है, जो मूल्य-मर्यादाहीन मध्यकाल है जिससे उसकी संवेदना आहत होती है। पर प्रश्न है कि एक विकृत समय में मनुष्य जाए भी तो कहाँ ? पलायन भी कोई सही मार्ग नहीं और जीवन-संग्राम तो पार करना ही होगा, पूरे संकल्प के साथ। कबीर समय के प्रति असंतोष के साथ, आध्यात्मिक संकेत करते हैं कि यह शरीर ही ग्राम है, जो विकारग्रस्त है-इंद्रियों वासनाओं में लिप्त । मुखिया, पटवारी, बलाही (लगान वसूलनेवाला), दीवान सब यहाँ आते हैं (कबीर वाङ्मय, खंड 2, पद 10) :
अब न बतूं इहि गाउँ गुसाईं, तेरे नेवगी खरे संयाने हो राम नगर एक तहँ नीव धरम हत, बसै जु पंच किसाना नैनूं निकलूं श्रवनूँ, रसनें, इन्द्री कहा न मानें हो राम गाउँ कु ठाकुर खेत कु नेपै, काइथ खरच न पारै
जोरि जेवरी खेत पसारै, सब मिलि मोकौं मारै हो राम स्थिति की जानकारी कबीर को है और वे ऊपर-ऊपर न तैरकर, समस्याओं की गहराई में जाते हैं। इसीलिए उनकी स्पष्टवादिता, व्यंग्य-बाण एक ओर हैं, और संकेत की भाषा दूसरी ओर । यहीं कबीर का समाजदर्शन बनता है कि वे मूल कारणों की तलाश करते हैं। उनके पास तात्कालिक समाधान न हो, पर वे रचना की लंबी यात्रा करते हैं, विचार-संवेदन के धरातल पर। प्रायः कबीर की खंडन दृष्टि का आग्रह करने की भूल की जाती है, पर रचना में यह संश्लिष्ट प्रक्रिया से संबद्ध प्रश्न है। कबीर समय का चित्रण नहीं करते, वे उससे टकराते हैं और वे निरपेक्ष अथवा तटस्थ
कबीर : जो घर फूंकै आपना चलै हमारे साथ / 95