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के साथ संवाद की स्थिति में होना है, दूसरों के दुःख-सुख में सहभागी। आध्यात्मिक अर्थ में व्यंजना लोकोत्तर है-उच्चतम मूल्य-धरातल की प्राप्ति, जिसे जीव का ब्रह्म में समा जाना कहा गया, अग्निकण का महापिंड में विलयन। ___मध्यकालीन व्यवस्था में पंडिताई, शास्त्र, कर्मकांड का जो वर्चस्व था, उसे चुनौती देने का कार्य सरल न था, पर कबीर ने इसे अपनी विनयी प्रखरता से स्वीकार किया। यों तो भक्तिकवि अपने सात्त्विक विनय-भाव के बावजूद आत्मविश्वासी हैं, पर कबीर में एक दुर्लभ प्रहारात्मकता है, जो उन्हें दूसरों से अलग व्यक्तित्व देती है। अनुभव को उन्होंने ज्ञान का दर्जा दिया और पूरे साहस से कहा कि दूसरे लोग पोथी-पंडित हैं, पुस्तकीय बातें करते हैं, मैं 'ऑखिन देखी' कहता हूँ। जाहिर है कि उनमें अद्भुत निरीक्षण-क्षमता रही होगी और अपनी यायावरी में उन्होंने बहुत कुछ जाना-समझा होगा। वे तथाकथित पोथी-पंडितों को ललकार कर कहते हैं कि हमारे-तुम्हारे मन-मत एक कैसे हो सकते हैं : मेरा-तेरा मनुआं कैसे इक होई रे, मैं कहता हौं आँखिन देखी तू कहता कागद की लेखी। यहाँ कबीर विरोधी दृष्टियों का उल्लेख करते हैं, जैसे दिशाएँ अलग-अलग हों। ज्ञानी सुलझाना चाहता है, पर पंडित उलझाकर रखता है। कबीर चेतावनी के कवि हैं, सबको जगाए रखना चाहते हैं; वे स्वयं को संबोधित करते हैं, और दूसरों को भी-अलख जगाते हुए। पंडित सही नहीं कहते, झूठ बोलते हैं : पंडित बाद बदै सो झूठा, राम कहैं दुनिया मति पावै, खांड़ कहैं मुख मीठा। कोरे शास्त्र के आधार पर अनुभूतिविहीन पंडिताई का क्या अर्थ है ? कबीर दुखी हैं कि कैसा कलिकाल है कि मिथ्याडंबर को आदर है : कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोय, लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होय। ऐसे में अनुभव-ज्ञान का माहात्म्य स्थापित करते हुए कबीर लोक से लोकोत्तर का संकेत करते हैं, जहाँ मुख्य चिंता उच्चतर मानव-मूल्यों की है।
कबीर विकल्प के स्वप्नद्रष्टा हैं और यहीं उनका समाजदर्शन महत्त्वपूर्ण है। समय का विकल्प है-जागरण और निरंतर जागरण, जिसकी कई ध्वनियाँ हैं-सचेत, सजग, ताकि विकार न घेर लें और निरंतर ऊर्ध्वमुखी यात्रा का प्रयत्न । कबीर जानते हैं कि यह मार्ग सरल न होकर, अत्यंत कठिन है, क्योंकि साधना-पंथ है। कथनी-करनी के द्वैत को पाटना होगा और दोमुंहेपन के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है। मुखौटे उघाड़ने होंगे, तब सही दिशा मिल सकेगी : मन रे जागत रहियो भाई, गाफिल होइ बसत मति खोवै, चोर मुसै घर जाई। यह आत्मजागरण तो है ही, दूसरों के लिए उद्बोधन भी है क्योंकि जागरण सबके साथ ही श्रेयस्कर है। कबीर को एहसास है कि उच्चतर मानवमूल्यों के जिस मार्ग का संधान वे कर रहे हैं, उसकी साधना कठिन है। उनका बहुउद्धृत दोहा है : कबिरा खड़ा बज़ार में लिये लुकाठी हाथ, जो घर फूंकै आपना, चलै हमारे साथ। कबीर की साधना गुह्य साधना नहीं है, वह सरेआम है, जहाँ लुकाठी (जलती लकड़ी) हाथ में लेकर कबीर चल पड़ा है। जो
कबीर : जो घर फूंकै आपना चलै हमारे साथ / 99