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जो आत्मबद्ध हैं, बड़ी चिंताएँ नहीं पालीं । कबीर जाग्रत चेतना के कवि हैं, वे समाज की बेबसी से दुखी हैं, अलख जगाना चाहते हैं और आध्यात्मिक अर्थ में लोक से उच्चतर मूल्य-संसार की ओर प्रयाण संत कवि का वांछित कवि-स्वप्न है । कुँवरनारायण के शब्दों में: हाय, पर मेरे कलपते प्राण तुमको मिला कैसी चेतना का विषम जीवन-मान / जिसकी इंद्रियों से परे जाग्रत हैं अनेकों भूख (चक्रव्यूह : आशय ) । योगपरक शब्दावली कठिनाई उपस्थित करती है और संप्रदायगत दृष्टि को, उन्हें रहस्यवादी प्रमाणित करने की सुविधा हो जाती है। पर कबीर की सामाजिक चेतना और अध्यात्म लोक दोनों उच्चतम आशय से परिचालित हैं, जहाँ कवि ऐसे विकल्प का संकेत करता है, जिसमें मध्यकालीन सामंती समाज को ललकारा गया है। व्यंग्य हमारी समझ में आ जाता है, क्योंकि प्रायः वह मुखर है, पर उच्चतर मूल्य-संसार के आध्यात्मिक लोक तक पहुँचने में किंचित् कठिनाई होती है । पर यह उच्चतर लोक मानवीय चिंता का ही सर्वोत्तम सोपान है, जिसे संत कवि की अभीप्सा के रूप में देखना चाहिए । कवि का स्वप्न उसके 'विज़न' से संबद्ध होता है, जिसमें सर्जनात्मक कल्पना की भूमिका होती है। ज्ञान - प्रेम के रसायन से भक्ति का निर्माण करते हुए कबीर देहवाद का विरोध करते हैं, जो सामंती समाज की मुखर प्रवृत्ति है और जिसके कई रूप हैं। जब वे मायाजन्य निस्सारता और मरणशील जीवन का वर्णन विस्तार से करते हैं, तब उनका यह भी प्रयोजन है कि आखिर मृत्यु पर विजय कैसे पाई जाय । उनके कई प्रश्न हैं कि जब जीवन काल के वश में है तो मोह क्यों ? मृत्यु-भय के द्वारा कबीर मनुष्य को वास्तविकता का बोध कराकर, ऐंद्रिक संसार से उसकी रक्षा करना चाहते हैं। बड़े भाग्य से मनुष्य-तन मिलता है, उसे यों ही गँवा देना उचित नहीं : मानुख तन पायौ बड़े भाग, अब बिचारि कै खेलौ भाग । कबीर का प्रश्न है, मायाजन्य संसार यदि मरणशील है, तो फिर मुक्ति-मार्ग क्या है ? और यहाँ वे वैकल्पिक राह सुझाते हैं कि ज्ञान के सहारे भक्तिमार्ग का अनुसरण । यहाँ ज्ञान- प्रेम में कोई अंतर नहीं है, दोनों के संयोजन से भक्ति प्रतिष्ठित होती है । प्रेम - रस, हरिरस की चर्चा बार-बार आती है : हरि रस पीया जांणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार, मैंमंता घूमत रहै, नांही तन की सार । यह अनिर्वचनीय सुख है, गूंगे के गुड़ की तरह । आध्यात्मिक शब्दावली में जीव के ब्रह्म अथवा चरम सत्य से साक्षात्कार का जो प्रयत्न है, वह उच्चतम मूल्य-संसार है । इसे किसी ऐसे अपरिभाषित गुह्य संसार में ले जाने की आवश्यकता नहीं, जहाँ तक पहुँचा ही न जा सके। कबीर के अनुसार, यों है यह मार्ग कठिन, पर साधना से इसे पाया जा सकता है।
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ज्ञान के साथ प्रेम कबीर के भक्तिभाव, समाजदर्शन का अविभाज्य अंग है । इसे व्यक्त करने के लिए उन्होंने उक्तियों के स्थान पर प्रतीकों - रूपकों का सहारा लिया ताकि अपना मंतव्य संपूर्णता में प्रकाशित कर सकें । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, जिन्होंने कबीर के फक्कड़पन को रेखांकित किया है, उनका भी विचार है कि 'कबीरदास
कबीर : जो घर फूँकै आपना चलै हमारे साथ / 101