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अहं को मिटा सकता है, वही इस राह पर चल सकता है। कबीर के शब्दों में : कबार मारग अगम है, सब मुनिजन बैठे थाकि, तहाँ कबीरा चलि गया, गहि सतगुर की साषि | यह है कबीर का गहरा आत्मविश्वास, आरंभिक प्रस्थान के रूप में जिसका श्रेय वे विवेकी गुरु को देते हैं, फिर तो स्वयं ही अग्रसर होना है ।
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कबीर के काव्य की विपरीत प्रतीत होने वाली दिशाएँ मूल्यांकन की कठिनाई उत्पन्न करती हैं। एक ओर सजग सामाजिक चेतना है, दूसरी ओर आध्यात्मिक स्वर, जिसे अधूरे साक्षात्कार के कारण कई बार रहस्यवाद भी कहा गया । कबीर निर्गुनियाँ हैं, पर 'राम' का प्रयोग बार-बार करते हैं, यद्यपि उनके राम का स्वरूप 'दशरथसुत' से भिन्न है। ज्ञान का उनमें प्रबल आग्रह है पर प्रेम भाव, भक्ति से संयोजित हुआ है और इन दोनों में संगति की कठिनाई हो सकती है क्योंकि कबीर में प्रेम उच्चतम धरातल पर विवेचित है । वे कहते हैं, प्रेम ही सत्य है : पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय । सबसे अधिक बाधा उपस्थित करती है, वह योग की शब्दावली, जो परंपरा में प्रचलित थी - ऐसे निश्चित अर्थ के वाहक शब्द जो प्रतीक हैं- सुरति निरति, इड़ा-पिंगला, ब्रह्मरंध्र कमल, अनहदनाद, अलख निरंजन आदि और इस आधार पर कबीर को रहस्यवादी घोषित किया जाता है। इन विरोधी प्रतीत होने वाली दिशाओं अथवा धाराओं को मध्यकालीन सामंती समाज के अंतर्विरोध के रूप में देखना भी सरलीकरण होगा, क्योंकि कबीर उलझाव के कवि नहीं हैं । उनमें कोरा भाववाद भी नहीं है कि उनकी भक्तिभावना को आवेश-क्षण कह दिया जाय । मेरा विचार है कि कबीर किसी शास्त्रीय प्रतिपादन के लिए यत्नशील नहीं हैं, पर उनकी रचनाओं से समाजदर्शन का जो समग्र संसार उभरता है, उसमें विरोधी दिशाएँ संयोजित होती हैं । गन्तव्य एक है, उच्चतर मानवमूल्यों की आचरण-प्रतिष्ठा, उसकी भंगिमाएँ अलग हैं। दो मार्ग एक ही गंतव्य पर पहुँचना चाहते हैं, एक सामान्यजन से संवाद की सहज स्थिति में है, दूसरे के लिए किंचित् श्रम की आवश्यकता है।
सजग सामाजिक चेतना में कबीर का क्रांतिकारी रूप मुखर है, जो सामाजिक विद्रोह का प्रतिबद्ध रूप है । वैयक्तिक विद्रोह की रचना में सीमा है, कई बार वह निर्वीर्य फूत्कार बनकर समाप्त हो जाता है, पर इसकी प्रयोजनवती भूमिका में वृहत्तर समाज सम्मिलित होता है। कबीर के प्रखर व्यंग्यकार को रेखांकित किया जाता है, पर उसके मूल में निहित मानवीय करुणा भाव की समझ होनी चाहिए। कबीर 'चिंताकुल कवि' हैं, उन्हें समाज की विसंगतियाँ उद्वेलित करती हैं। समाज के दो दृश्य हैं, एक संपन्न - निश्चित और दूसरा विषाद- डूबा। बहुप्रचलित दोहे की अर्थध्वनि दूर तक जाती है: सुखिया सब संसार है, खावै औ सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै औ रोवै । सामंती समाज में अभिजन समाज है, वैभवसंपन्न, पर बहुजन वर्ग उनका जो अभावग्रस्त है, यह सामाजिक स्थिति है । पर आध्यात्मिक संकेत भी कि वे सखी - निश्चित हैं,
100 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन