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नहीं हैं, व्यापक अर्थ में प्रतिबद्ध हैं, श्रेष्ठतर मानवमूल्यों के लिए। मध्यकाल में समाज पर राजतंत्र तथा उसे पोषित करते हुए पंडित - पुरोहित वर्ग का प्राधान्य है और सबने सामान्यजन को गुमराह किया है। कबीर के व्यंग्य आक्रोश की उपज हैं, पर इसके मूल में जो करुणा - सहानुभूति के तत्त्व विद्यमान हैं, उनकी ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए। कबीर को अपना गुरु स्वीकारने वाले प्रखर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने स्वयं को 'बेचैन मन का आदमी' कहा है। यह बेचैनी हर ऐसे ईमानदार रचनाकार में होती है, जो सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन में शब्द की भूमिका का निर्वाह करना चाहता है। कबीर की विचारधारा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि आहत संवेदन विचारभूमि पर आकर सर्जनरत होता है । क्षणिक भावुकता, भावावेश अकारथ चले जाते हैं पर विचार-संवेदन की सघन मैत्री रचना को सार्थकता देती है, जिसे पहले भाव-विचार कहा जाता था ।
कबीर ने निर्गुण-निराकार का वरण सप्रयोजन किया । देवत्व की ओट में जो कर्मकांड मध्यकाल में विकसित हुआ, उससे हर प्रकार के पुरोहितवाद को प्रश्रय मिला, सामंती संरक्षण तो उसे था ही । निराकार - साकार, निर्गुण-सगुण को आमने-सामने रखकर देखना भी एक सीमा तक ही उचित है, पर कबीर निर्गुण को ज्ञानपंथ मानते हैं और उनके अनुसार विवेक सर्वोपरि है और ज्ञान के उदय होने पर भ्रम टूट जाते हैं। यह एक प्रकार का सूर्योदय है, जिसके विषय में निराला ने भी कहा : उगे अरुणाचल में रवि, आई भारती-रति कवि - कंठ में (जागो फिर एक बार), अथवा जीवन- प्रसून में वह वृत्तहीन, खुल गया उषानभ में नवीन (प्रभाती ) । कबीर जानते हैं कि सगुण कर्मकांड के लिए अधिक अवसर रहता है, इसलिए वे निर्गुण ज्ञान मार्ग अपनाते हैं। यह बात दूसरी है कि कबीर जैसे ज्ञानमार्गी निर्गुनियाँ को भी केंद्र में रखकर मठ बने। कबीर का आग्रह निर्मल आचरण पर है, पूर्ण ज्ञान पर है जिसे बुद्धदेव के संदर्भ में बोध - प्राप्ति अथवा 'बोधत्व' कहा गया। इससे वास्तविकता का बोध होता है और सत्य के साक्षात्कार की प्रक्रिया आरंभ होती है। कबीर ने कहा, 'संतों भाई आई ग्यांन की आँधी रे, भ्रम की टाटी सभै उड़ांनी, माया रहे न बाँधी रे ।' संपूर्ण रूपक (सांग) के माध्यम से उन्होंने ज्ञानोदय का चित्र प्रस्तुत किया कि भ्रम, आसक्ति, बाह्याचार, तृष्णा, कुमति-माया के उपकरण नष्ट हो गए। जिस मायाजन्य छाजन को आश्रयस्थल समझा था, वह ज्ञानागमन पर समाप्त हो गया-भ्रम-भंग की स्थिति है, यह । पद के अंत में ज्ञानाश्रित भक्ति की वर्षा का चित्रण है : 'आँधी पाछै जो जल बरसै, तिहिं तेरा जन भीनां / कहै कबीर मनि भया प्रगासा, उदै भानु जब चीनां ।' यह चेतना की सात्त्विकता का अरुणोदय है, जब विकार मर जाते हैं, चेतना उच्चतम मूल्य-धरातल पर पहुँचती है, जिसे कबीर भगवद्भक्ति कहते हैं । ज्ञान निर्गुण पंथ का मूलाधार है जहाँ आग्रह आचरण की शुचिता पर है और आत्म-साक्षात्कार परम विराट की प्राप्ति का उपाय है। ज्ञान जाग्रत विवेक का नाम है जो कबीर में
96 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन