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पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी । वह जायसी द्वारा पूरी हुई' ( पद्मावत: भूमिका, पृ. 2) | पद्मावत के सांकेतिक अध्यात्म को लेकर उपसंहार अंश उद्धृत किया जाता है : तन चितउर मन राजा कीन्हा, हिय सिंघल, बुधि, पदमिनि चीन्हा/ गुरु सूआ जेइ पंथ देखावा, बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा। इसके विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं, पर निर्विवाद है कि सूफी काव्य भाव- ऐक्य का आग्रही है, जिसे उच्चतम धरातल पर प्रतिष्ठित किया गया है। मौलाना दाऊद ने नायिका - प्रधान 'चन्दायन' काव्य की परिकल्पना की, जहाँ नायिका चाँद प्रधान स्थान पर है। कुतुबन की 'मिरगावती' भी प्रमुखता पाती है। इस प्रकार नारी के प्रति सहानुभूति - दृष्टि में भी सूफी काव्य की उदारता का संकेत है, जो मध्यकालीन परिवेश को देखते हुए उल्लेखनीय है ।
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अवतारवाद में कृष्ण-राम सर्वोपरि देवता रहे हैं और इन्हें केंद्र में रखकर, भक्तिकाव्य विकसित हुआ । विष्णु के ये दो प्रमुख अवतार वैष्णव परंपरा को रचना में नई गति देते हैं और ब्रह्मवैवर्त पुराण, भागवत, आलवार संत से लेकर अष्टछाप ( पंद्रहवीं - सत्रहवीं शताब्दी) के कवियों तक मध्यकालीन भक्ति का यह क्रम विद्यमान है । कृष्णकाव्य का ऐसा आकर्षण कि इसमें सभी जाति-संप्रदाय के कवि हैं और मुसलमान रहीम (1556-1627), रसखान (1533-1618) जैसे कवि भी । रामायण- महाभारत के चरित नायक त्रेता द्वापर के हैं, पर जहाँ तक भक्तिकाव्य का संबंध है, कृष्ण कुछ पहले आ गए और सोलह कला अवतार वाले अपने बहुरंगी व्यक्तित्व से लोकप्रिय भी हुए। राम त्रेता युग से जुड़कर भाषा - रचना में थोड़ी देर से आए और चरित्र की मर्यादाओं ने उनकी सीमा बना दी । भागवत और आलवार संतों से कृष्णभक्ति को सार्थक प्रस्थान मिला और वैष्णव चेतना ने कृष्णकाव्य को गहरे भाव-स्तर पर प्रभावित किया । कृष्ण के चारों ओर एक समग्र लीला - संसार है, जिसमें राधा का प्रवेश नई गिमाएँ जन्माता है । भ्रमरगीत गोपी-भाव से संबद्ध है और राधा महागोपी भाव की प्रतीक हैं । प्रायः कहा जाता है कि कृष्ण काव्य में लोकरंजक रूप अधिक है, जिसका एक कारण भागवत की प्रेरणा भी है, जहाँ लीला - संसार प्रधान है। महाभारत के कृष्ण यहाँ प्रमुखता नहीं प्राप्त करते । भागवत के अंतिम अंश के माहात्म्य - समापन में 'प्रेमानन्द फलप्रदम्' शब्द का प्रयोग किया गया है जिससे इसकी रस- दृष्टि स्पष्ट है। पुराण के अतिरिक्त प्राकृत, अपभ्रंश तथा अन्य भारतीय भाषाओं में कृष्ण-चरित का बखान हुआ। कृष्ण का महत्त्व यह कि उन्होंने संपूर्ण कला - संसार - मूर्ति, वास्तु, चित्र, संगीत आदि में स्थान प्राप्त किया। वे जनप्रिय देवता हुए और उनसे समरस होने में सामान्यजन को अधिक कठिनाई नहीं हुई। वे दास्य के साथ सख्य-भाव से भी देखे गए और भारत के बाहर भी उन्हें स्वीकृति मिली। उन्हें केंद्र में रखकर संप्रदाय बने-निंबार्क, हरिदास, वल्लभ, राधावल्लभ आदि । बंगाल की प्राचीन कृष्णभक्ति
भक्तिकाव्य का स्वरूप / 75