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गया है, जो कवियों की उदार संयोजन-क्षमता का बोध कराता है। स्त्री-पुरुष-संबंध आध्यात्मिक भूमि पर पहुंचते हैं, इसके संकेत देते हुए, कवि उसे एक पूर्णता देना चाहते हैं और वियोग-भाव इसके प्रतिपादन में सहायक है, जिससे प्रेम प्रगाढ़ होता है। इसकी प्राप्ति के लिए अहं का विसर्जन आवश्यक है-संपूर्ण समर्पण भाव; हस्ती के फना होने पर ही खुदा मिलता है। जिस प्रेमभाव पर सूफी काव्य खड़ा है, उसके संबंध में एक प्रासंगिक प्रश्न कि क्या वह जीवन से पलायन है ? माना कि अपने समय से वह सीधे नहीं टकराता, पर अपने लोक-उपादानों में वह विशिष्ट है और लोकजीवन की, लोकभाषा में अभिव्यक्ति इसमें देखी जा सकती है, जिसमें अवध का स्वरूप विशेष रूप से उभरा है। प्रकृति का भी इसमें उपयोग है और ग्रामजीवन की छटा भी यहाँ है, सामंती समाज का प्रतिलोम बनकर। सूफी कवियों का प्रेम-भाव उन्हें मध्यकालीन जीवन-यथार्थ से टकराने नहीं देता, पर वे जातीय सौमनस्य के अन्यतम उदाहरण हैं। नायिका-प्रधान काव्य से नारी के प्रति उनकी उदार दृष्टि का पता चलता है।
मलिक मुहम्मद जायसी का समय 1464-1542 स्वीकार किया जाता है और उन्होंने स्वयं शेरशाह सूर (शासन : 1540-45) का उल्लेख शाहेवक्त के रूप में किया है : सेरसाहि देहली सुलतानू (पद्मावत : स्तुति खंड)। जायसी की रचनाएँ-पद्मावत, अखरावट, आखिरी कलम, मसला, कहरनामा हैं। हाल में ही प्रकाशित 'कान्हावत' काव्य अब भी विवाद के घेरे में है। पर उनकी कीर्ति का मुख्य आधार पद्मावत है, जिसमें चितौड़गढ़ के राजा रत्नसेन और सिंहलद्वीप की पद्मावती की कथा है। रत्नसेन हीरामन सुग्गे से पद्मावती का सौंदर्य वर्णन सुनकर उसे पाना चाहता है। वह सौंदर्य अद्वितीय है : का सिंगार ओहि बरनौं राजा, ओहिक सिंगार ओही पै छाजा। उसे पाने की प्रक्रिया भी सरल नहीं और एक कठिन साधना मार्ग से गुजरना है, तप करना है : तजा राज, राजा भा जोगी, औ किंगरी कर गहेउ वियोगी। पद्मावती को प्राप्त करने के अनंतर संघर्ष-कथा है जिसमें दिल्ली-शासक अलाउद्दीन चितौड़गढ़ पर आक्रमण करता है। पर जिस पद्मावती को वह प्राप्त करना चाहता है, वह सखियों के साथ सती हो जाती है : लागी कंठ आगि देइ होरी, छार भई जरि, अंग न मोरी (पद्मावती-नागमती-सती खंड)। इतिहास-कल्पना के संयोजन से अपनी कृति का निर्माण करते हुए जायसी प्रेम-दर्शन की प्रतिष्ठा करते हैं, जिसे पूरे काव्य में देखा जा सकता है : प्रेम-घाव-दुख जान न कोई, जेहि लागै जानै तै सोई (प्रेम-खंड)। तुलसी के अनंतर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सर्वाधिक सराहना मलिक मुहम्मद जायसी को दी है, जो सूफी काव्य परंपरा के शीर्ष पर हैं : 'हिंदू-हृदय और मुसलमान-हृदय आमने-सामने करके अजनबीपन मिटाने वालों में इन्हीं (सूफ़ियों) का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसलमान होकर हिंदुओं की कहानियाँ हिंदुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का
74 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन