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भी प्रासंगिक बनते हैं। वे हरिशंकर परसाई जैसे व्यंग्यकार के प्रेरणा-पुरुष बनते हैं और नई कविता के हस्ताक्षर विजयदेव नारायण साही अपने कविता-संकलन 'साखी' की अंतिम कविता 'प्रार्थना : गुरु कबीरदास के लिए' में उन्हें प्रणाम निवेदित करते हैं : 'दो तो ऐसी निरीहता दो/कि इस दहाड़ते आतंक के बीच फटकार कर सच बोल सकूँ।' केदारनाथ सिंह के काव्य-संकलन का नाम है- 'उत्तर कबीर' । वे आधुनिक उपन्यास, नाटक के नायक बनते हैं। यह सब दर्शाता है कि कबीर कहीं न कहीं असाधारण हैं और अपने समय पर तीखे आक्रमण करते हुए, निडर। भक्तिकाव्य के पूरे वृत्त में कबीर का अपना स्थान विशिष्ट है, यद्यपि वे स्वयं को लगभग अनपढ़ कहते हैं। पर अनुभव-ज्ञान सबसे बड़ा ज्ञान है, यदि उसका सही-सार्थक उपयोग हो सके और कबीर ने इसे पहचाना : मैं कहता आँखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।
कबीर रामानन्द के शिष्य हुए, इससे उनकी सामाजिक चेतना विकसित हुई। कोई माँ लहरतारा तालाब के किनारे नवजात कबीर को रख आई थी, जिसका पालन-पोषण नीरू जुलाहा ने किया। यह कथा कबीर से जुड़ी हुई है, पर इस अज्ञात कुलशील प्रतिभा ने अपनी प्रखरता और निर्भयता से मध्यकालीन धर्मसाधना को एक नई दिशा दी, कविता में उसे व्यक्त किया। कम प्रतिभाएँ होती हैं, जिनकी परंपरा अग्रसर हो और कबीर का पंथ विकसित हुआ, यह बात और कि उसकी शाखाएँ-प्रशाखाएँ बनीं, एक प्रकार की प्रतिक्रांति हुई। कबीर में इतने प्रकार के संयोजन हैं कि उनके व्यक्तित्व की विरोधी दिशाएँ जैसी दिखाई देती हैं और उनकी भाषा को सधुक्कड़ी तक कहा गया, जबकि वह उनका निर्भय व्यक्तित्व उजागर करती है। कबीर के तीखे आक्रमण उस गर्हित व्यवस्था पर हैं जहाँ ऊँच-नीच का भेदभाव है, समाज मिथ्याचार-आडंबर से घिर गया है, ऐसे में सत्य बिला गया है। कबीर के असंतोष में तीव्र आक्रोश का जो भाव है, वह कई बार आक्रामक होता है : पंडित बात बदंते झूठा। स्वयं को ‘ना हिंदू ना मुसलमान' कहते हुए वे राम-रहीम में अंतर नहीं मानते और जातीय सौमनस्य के सबसे प्रबल प्रवक्ता बनते हैं। उनका आक्रमण मध्यकालीन देहवाद पर है, साथ ही पुरोहितवाद पर भी, पर वे विकल्प की खोज भी करना चाहते हैं, आध्यात्मिक स्तर पर, जहाँ पवित्र मन, शुद्ध आचरण, प्रेमभाव सर्वोपरि हैं। प्रगतिवादी कबीर को सराहते हैं, यद्यपि वे कवि का एक अंश ही स्वीकारते हैं।
कबीर की रचनाओं की प्रामाणिकता को लेकर पर्याप्त वाद-विवाद हुए हैं। ठाकुर जयदेव सिंह-वासुदेव सिंह ने रमैनी, सबद, साखी खंडों में उन्हें संकलित किया है। उनके पद संगीत से जुड़कर लोक की संपत्ति हुए और 'कबिरा' हर जगह गाया जाने लगा। ऐसी जनस्वीकृति भक्तिकाव्य के कवियों को ही सुलभ हुई और उनमें भी कबीर की वाणी पर्याप्त दूरी तक फैली, विशेषतया सामान्यजन में। जिस व्यक्ति
72 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन