Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 66
________________ संधिकाल । इसे संक्रांतिकाल कहा गया, इस दृष्टि से कि कई विचारधाराएँ सक्रिय थीं, पर कोई समग्र रूप उभर नहीं पा रहा था। ऐसे में विभिन्न विचार टकराते हैं : एक ओर पुरातनपंथी प्रतिगामी शक्तियाँ हैं, तो दूसरी ओर नई दिशाओं की खोज करते प्रगतिशील तत्त्व । द्वंद्व की इस स्थिति में भक्तिकाव्य का मूल वृत्त सक्रिय होता है। स्वीकारना होगा कि धर्म की तुलना में रचनाशीलता की स्थिति भिन्न है, जहाँ जड़ता के लिए अधिक स्थान नहीं होता और समाज - इतिहास के दबाव उसे आंदोलित करते हैं, पर वह अपनी रचनात्मक ऊर्जा से इन्हें पार करता है । I सिद्ध-नाथ-संत की परंपरा में सबसे जुझारू रचनाशीलता कबीर ( 1398-1518) है की मानी जाती है, जिनका पूरा व्यक्तित्व ही विद्वानों में विवाद उपजाता रहा उनकी जीवन-रेखाएँ भी कम विवादास्पद नहीं और उसे लेकर कई प्रकार की कथा- किंवदंती हैं। जुलाहा जाति में जन्मे कबीर किसी पांडित्य का दावा नहीं कर सकले, पर सामान्यजन ने उन्हें स्वीकारा और श्री गुरुग्रंथ साहब में उन्हें स्थान प्राप्त है । आचार्य रामचंद्र शुक्ल कबीर को रामानन्द की परंपरा में रखते हुए, उन पर सूफी भावना का प्रभाव भी देखते हैं: 'उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के ब्रह्मात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल खड़ा करके अपना पंथ खड़ा किया' (इतिहास, पृ. 67 ) । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर के व्यक्तित्व को नए संदर्भ में देखा-परखा। तुलसीदास आचार्य शुक्ल के प्रिय कवि हैं, कविता के प्रतिमान, आचार्य द्विवेदी कबीर के अक्खड़-फक्कड़ रूप से बहुत प्रभावित हैं और उन्हें मध्यकालीन समाज - इतिहास की दृष्टि से मिलन - बिंदु का कवि मानते हैं । वे विपरीत धारा में चले, प्रचलित शास्त्र के विरोध में, जिससे उनकी समझ में कठिनाइयाँ आईं, यद्यपि सामान्यजन में कबीर की स्वीकृति दो-टूक वाणी और निर्भय विचारों से है । द्विवेदीजी के शब्दों में : 'कबीर का रास्ता बहुत साफ़ था । वे दोनों को ( हिंदू-मुस्लिम धर्म) शिरसा स्वीकार करने वा नहीं थे । वे समस्त बाह्याचारों के जंजालों और संस्कारों को विध्वंस करने वाले क्रांतिकारी थे । समझौता उनका रास्ता नहीं था । इतने बड़े जंजाल को नाहीं कर सकने की क्षमता मामूली आदमी में नहीं हो सकती । जिसे अपने मिशन पर अखंड विश्वास नहीं है, वह इतना असम साहसी हो ही नहीं सकता' (कबीर, पृ. 185 ) । I कबीर कठिनाई उपस्थित करते हैं कि उनमें हठयोग है, जिसे डॉ. रामकुमार वर्मा आदि ने रहस्यवाद कहा, पर इससे कवि की सामाजिक चेतना धूमिल हुई । अकारण नहीं कि कबीर जैसे विद्रोही - क्रांतिकारी कवि - विचारक के नाम पर मठ स्थापित हो गए और मठाधीशत्व प्रधान हो गया। कबीर के तेजस्वी व्यक्तित्व की मान्यता इतनी व्यापक कि मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ के सतनामी स्वयं को कबीर - परंपरा से जोड़ते हैं और पंजाब तक कबीर का प्रभाव है। मराठी संतकाव्य पर उनकी छाया है और कविता का आभिजात्य तोड़ते हुए, वे सामान्यजन को संबोधित करते हैं और आज भक्तिकाव्य का स्वरूप / 71

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