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प्रसिद्ध हैं, यद्यपि कृष्णकथा से संबद्ध उनकी अन्य रचनाएँ भी हैं : रासपंचाध्यायी दशम स्कंध आदि। नन्ददास आचार्य भी हैं, अलंकरण के कवि माने जाते हैं जैसे उदधवशतक के रचयिता ब्रजरत्नदास रत्नाकर । कृष्णकाव्य की लंबी सूची है, पर वह कई बार संप्रदायबद्ध भी है।
मीरा कृष्ण भक्तिकाव्य में विशिष्ट हैं-मध्यकाल में नारी जागरण का स्वर बनकर (प्रेमशंकर : भक्तिकाव्य का समाजशास्त्र, पृ. 121)। उनकी जीवनी से संघर्ष का अनुमान भी किया जा सकता है, जो कि भावात्मक स्तर का है-लोक और अध्यात्म के बीच। जब वे कहती हैं : 'मीरा गिरधर हाथ बिकाणी, लोग कह्यां बिगड़ी, तब वे इस मानसिक संघर्ष का संकेत करती हैं, पर अपने भक्ति भाव में अडिग हैं। मीरा के परम आराध्य कृष्ण हैं : आध्यात्मिक देवता : मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई और इसका स्वरूप है : जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई। यह आध्यात्मिक संबंध सूफ़ियों का स्मरण भी कराता है, पर एक अंतर के साथ। मीरा सीधा संवाद स्थापित करती हैं, अपने आराध्य के साथ, जबकि सूफ़ियों में लौकिक (इश्क मिज़ाज़ी) के माध्यम से अलौकिक (इश्क हकीकी) की व्यंजना है। मीरा के पद गीत-सष्टि हैं और राग-रागिनियों में भी बद्ध किए गए, पर उनकी सहजता, लोक उपादानों के साथ उन्हें सामान्यजन से जोड़ती है। पद मौखिक परंपरा की संपत्ति बनते हैं और जीवनकाल में ही सूर की तरह मीरा के पद गाए जाते थे। मीरा न किसी कथा का आश्रय लेती हैं, न दर्शन का, वे अपने भावलोक के सहारे कृष्णभक्ति के गीत गाती हैं। यह सहज भावनामयता उनकी क्षमता है क्योंकि सब कुछ अकुंठित भाव से कहा गया है। उनके वियोगभाव में वैसा ही समर्पण भाव है, जैसा जीव विधाता के अभाव में अनुभव करता है। यहाँ वे कबीर से आगे निकलती हैं, भाव-विह्वलता में। कोई रचनाकार सीमित पूँजी के सहारे भी सार्थक यात्रा कर सकता है, मीरा का काव्य इसे प्रमाणित करता है। सघन भाव-प्रवणता, सहज प्रेम भाव, अकृत्रिम अभिव्यक्ति से उन्होंने इसे संभव किया, लोक को संबोधित करते हुए। उनका उपासना भाव उच्चतम धरातल पर पहुंचता है। चलो मन वा जमणां के तीर/वा जमुना का निरमल पानी, सीतल होत सरीर/वंसी बजावा, गावा कान्हा, संग लिया बलवीर। मीरा को मध्यकालीन नारी-अस्मिता के रूप में देखा जाना चाहिए और समाजदर्शन की दृष्टि से वे एक विशिष्ट स्वर का प्रतिनिधित्व करती हैं।
जातीय सौमनस्य के लिए कबीर और सूफी कवियों का विशेष उल्लेख किया जाता है। पर यह भी कहा जाता है कि कृष्णकाव्य के सेक्युलर चरित्र ने मुसलमान कवियों को भी इस ओर आकृष्ट किया। इनमें कई नाम हैं, पर जहाँ तक भक्तिकाव्य का संबंध है रहीम, रसखान का स्थान विशिष्ट है। अब्दुर्रहीम खानखाना (1556-1627) का जीवन घटनाबहुल है और उनके व्यक्तित्व की कई दिशाएँ हैं। उन्होंने जीवन के कई उतार-चढ़ाव देखे, राजसत्ता से जुड़कर उठे भी, गिरे भी। कई विषयों और
भक्तिकाव्य का स्वरूप / 77