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गौड़ीय संप्रदाय में आती है, जिसके प्रवर्तक चैतन्य के नाम पर इसे चैतन्य मत भी कहा गया।
___ वल्लभाचार्य ने कृष्ण भक्तिकाव्य को नई प्रेरणा दी और ब्रजमंडल पूर्वांचल से जुड़ गया। अष्टछापी कवियों का कृष्णकाव्य परंपरा में विशिष्ट स्थान है, जिसमें सूरदास सर्वोपरि हैं और उनके साथ परमानन्ददास, नन्ददास जैसे कवि हैं। भारतीय भाषाओं में कृष्ण भक्तिकाव्य की अनवरत परंपरा कृष्ण की सर्वस्वीकृति है, भागवत जिसका मुख्य प्रस्थान है। विद्वान् हाल-रचित गाहासतसई अथवा गाथासप्तशती का उल्लेख करते हैं जहाँ कृष्ण-राधा के रसिक प्रसंग आए हैं। रासलीला महत्त्वपूर्ण काव्य-विषय बना, जिसका संकेत भागवत की रासपंचाध्यायी में है। आगे चलकर जयदेव, विद्यापति में कृष्णगाथा को विकास मिला। जयदेव का गीतगोविन्द अपनी मधुर कोमलकान्त पदावली के लिए विख्यात है, जहाँ श्रृंगार खुली भूमि पर है और राधा-कृष्ण का यह मानुषीकरण रासप्रसंग, मान-मनुहार आदि में विशेष रूप से उभरा है। श्रृंगार की यह रसभूमि विद्यापति में विद्यमान है, जहाँ राधा 'लावण्य-सार' है और कृष्ण रस-रूप। राधा अपरूप रूपा है, जैसे विधाता ने चंद्रमा के सार से उसे रचा : अमिय धोय आंचर धनि पोछलि दह दिस भैल उजोरे। संयोग-वियोग दोनों स्थितियों में विद्यापति के राधा-कृष्ण उन्मुक्त भूमि पर हैं। चैतन्य, चंडीदास कृष्णगाथा को प्रार्थनाभाव से जोड़ते हैं और बंगाल तथा पूर्वांचल में कृष्ण भक्तिकाव्य का मार्मिक विकास हुआ। अन्य अहिंदी भारतीय भाषाओं में भागवत प्रमुख प्रस्थान के रूप में है।
हिंदी कृष्णभक्ति काव्य सूरदास में अपनी पूर्णता पर पहुँचता है, वे उसके रचना-शिखर हैं, सर्वोत्तम प्रतिभा-पुरुष। यों अष्टछापी काव्य की प्रसिद्धि है, जिस पर डॉ. दीनदयालु गुप्त ने प्रामाणिक कार्य किया। डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने 'सूर-पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य' में कवियों की लंबी सूची दी है, जिससे ज्ञात होता है कि हिंदी कृष्णभक्ति काव्य सूर में अपने शीर्ष पर पहुँचा। कवि विष्णुदास की महाभारत कथा भागवत-आधारित अधिक है। अष्टछाप कवियों में : सूरदास, परमानन्ददास, नन्ददास अधिक यशस्वी हैं। परमानन्ददास (1493-1584) भी सूर की भाँति कृष्ण-कथा का वर्णन नहीं करते, उनकी रुचि कृष्ण की बाल-लीला में अधिक है। कई बार सूर के पदों और परमानन्द के पदों में अद्भुत साम्य है : कहन लगे, मोहन मैया-मैया; बाल विनोद गोपाला के देखत मेहि भावै आदि। ऐसा प्रतीत होता है कि सूरदास इतने जनप्रिय थे और उनके पद जनमानस में इस सीमा तक प्रचलित हो गए कि ब्रजमंडल के अन्य भक्त कवियों पर उनकी भाव-छाया स्वाभाविक प्रक्रिया है। प्रश्न प्रतिभा का भी है कि उसमें कितनी मौलिक सर्जनात्मक क्षमता निष्पादित की जा सकती है। परमानन्ददास मूलतः गोपीभाव से परिचालित हैं और कृष्णभक्त कवियों में वे सहज भावभूमि पर हैं : ब्रज के बिरही लोग विचारे बिन गोपाल ठगे से ठाढ़े अति दुर्बल तन हारे (पद 553)। नन्ददास (1533-83) भँवरगीत के लिए
76 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन