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ना तो स्पष्ट है कि सूर अपने जीवनकाल में इतनी नामवरी पा गए थे कि उनसे भेंट का इच्छुक था। आइने अकबरी में महाकवि सूरदास, तुलसीदास
प्रवेश कर पाते, यह प्रश्न भी प्रासंगिक है। सूर का दैन्य-प्रार्थना से, कृष्ण के प्रति रागात्मक भक्त की ओर प्रयाण उल्लेखनीय है।
कष्णगाथा के प्रस्थान रूप में मुख्यतया भागवत की चर्चा होती है, पर सूर
स्तित्व उसे नई भाव-व्यंजना देता है। सूर प्रबंधकार नहीं हैं और तुलसी की माह उन्हें कथा कह सकने की सुविधा नहीं है। पर यह कम आश्चर्यजनक नहीं सिमर कष्ण-लीला के असंख्य पद गीतात्मकता के आधार पर रचते हैं। लाख पदों की जनश्रुति पर ध्यान न दें, तो भी जितने पद उपलब्ध हैं, वे भी पदों की गीत मष्टि को ध्यान में रखते हुए, प्रतिभा का वैशिष्ट्य प्रमाणित करते हैं। अपने को अधिक न दुहराना, पुनरावृत्ति दोष से यथासंभव बचने का प्रयास करना और अंतिम क्षण तक सर्जनरत रहना प्रतिभा की क्षमता से ही संभव है। आरंभ में प्रार्थना-भाव है : नाथ अनाथनि ही के संगी/दीनदयाल, परम करुनामय जन-हित हरि बहुरंगी अथवा स्याम गरीबनि हूँ के गाहक/दीनानाथ हमारे ठाकुर, साँचे प्रीति निबाहक आदि। मध्य में स्थिति है-कृष्ण लीला-गान, जिसकी अनेक छवियाँ हैं, बाल-वर्णन से लेकर रास-प्रसंग और महारास तक । भ्रमरगीत प्रसंग उपास्य-उपासक के प्रेम-भाव को उजागर करता है और उसे सगुण-निर्गुण विवाद तक सीमित नहीं किया जा सकता। यहाँ भाव प्रधान है और तर्क भी है तो भावाश्रित, जो स्वयं में विरोधाभास है, जिसे लगभग तर्कहीन कह सकते हैं, पर यहाँ गोपियाँ भक्ति-भावावेग से परिचालित हैं। अकारण नहीं कि यहाँ नेत्र, वंशी को प्रमुखता मिलती है : नेत्रों ने देखा, रूप पर मुग्ध हुए
और वंशी को सुना तो गोपिकाएँ गुण पर निछावर हो गईं। आँखें कृष्ण को देखना चाहती हैं, उसी रूप में जिसमें उन्हें प्रथम बार देखा था : स्थिति यह कि निसिदिन बरसत नैन हमारे सदा रहति पावस ऋतु हम पै, जब तें स्याम सिधारे अथवा और सबै अंगन तैं ऊधौ, अँखिया अधिक दुखारी। आँखों को पंख लग गए हैं : ‘बहुत रोके अंग सब पै, नयन उड़ि-उड़ि जात।' बहिया आ गई है : तुम्हारे बिरह ब्रजनाथ, अहो प्रिय नयनन नदी बढ़ी आदि। रूप-गुण के संयोजन से सूर की भक्ति निर्मित हुई है, जिसमें लोकउपादानों का सक्षम उपयोग हुआ है।
सूर उस परंपरा के प्रतीक, जिन्हें अपने जीवन-काल में ही ऐसी जनप्रियता मिली कि वे वाचिक-मौखिक परंपरा से जुड़ गए। जनता के कंठ में पहुंचकर कविता कालजयता प्राप्त करती है। बालकृष्ण के वर्णन में सूर अद्वितीय हैं और जिन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काव्य-प्रतिमान तुलसी हैं और जिन्हें वे अपनी समीक्षा में प्रथम स्थान देते हैं, वे भी स्वीकार करते हैं कि 'यद्यपि तुलसी के समान सुर का काव्य का इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की भिन्न-भिन्न दशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्य-भूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना
भक्तिकाव्य का स्वरूप / 81