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अछूता न छूटा। शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक उनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और किसी कवि की नहीं । इन दोनों क्षेत्रों में तो इस महाकवि ने मानों औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं, ( सूरदास, पृ. 96 ) । जैसे बालवर्णन, जहाँ कृष्ण की असंख्य बाल छवियाँ पूरी रागात्मकता में चित्रित हैं। बालक कृष्ण की एक-एक छवि यहाँ उभरी है, निरपेक्ष रूप में नहीं, भक्ति-भाव के साथ, नन्द-यशोदा, ग्वाल-बाल सब उसमें सम्मिलित हैं : सोभित कर नवनीत लिए / घुटुरुनि चलत रेनु तन-मंडित, मुख दधि लेप किए। पद का समापन है : धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए । प्रायः पदों के समापन अंश में यह राग-भाव व्यक्त होता है और माखन- लीला, गो- चारण, वंशी - गायन आदि में कृष्ण के रूपचित्र अपनी पूरी अद्वितीयता में हैं। सारे प्रसंग कृष्ण को सामाजीकृत करते हैं और वे परम आराध्य बनते हैं : बन तैं आवत धेनु चराए / संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रज लिपटाए। और अंत में : सूरदास बलि लीला प्रभु की, जीवत जन जस गाए। सूरदास में मुरली आकर्षण का विस्तार है : सूरदास मुरली है, तीन- लोक-प्यारी, वह गुण - बोधक है।
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सूरदास में कृष्ण-चरित एक नया रागात्मक विस्तार पाता है, यह निर्विवाद है भागवत तो समस्त भक्ति का प्रस्थान है, पर सूर कृष्ण को एक प्रकार से पुनःसर्जित करते हैं, राधा के संयोजन से उसे नया उत्कर्ष देते हैं और कंचनवर्णी राधा पूरा प्रसंग नई दीप्ति पा जाता है । स्वकीया - परकीया जैसे प्रश्न अप्रासंगिक हैं, क्योंकि मूलतः निगतिकालीन समय के रीतिशास्त्र से संबद्ध हैं। स्वकीय वह जो अपने व्यक्तित्व को इस सीमा तक विलयित कर दे कि पार्थक्य ही न रह जाय, ऐसे में जिसे परकीय कहा जाता है, वह भी स्वकीय का अधिकारी है । इसीलिए राधा को परम गोपी भाव, महाभाव कहा गया और उसके बिना कृष्ण अधूरे हैं । वियोग का सर्वाधिक व्यथा - भार भी वही झेलती है : अति मलीन वृषभानु कुमारी / हरि स्रम-जल अंतर तनु भीजै, ता लालच न धुआवति सारी । कृष्ण स्नेह स्वीकारते हैं- उभयपक्षीय प्रेम को प्रतिष्ठित करते । 'सूर ने ब्रज के लोक-जीवन को लगभग दुह लिया और वे कृषि - चरागाही संस्कृति के प्रतिनिधि कवि हैं। लगता है जैसे ब्रजमंडल 'सूरसागर' में समा गया है -उत्सव, पर्व से लेकर लोकजीवन तक' ( प्रेमशंकर : कृष्णकाव्य और सूर, पृ. 129 ) । स्वयं को व्यक्त करने के लिए सूर ने ब्रजभाषा को उसके चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया और कई बार भाषा चित्र बनाने में जिस कौशल के साथ अग्रसर होती है, वह सर्जनात्मक क्षमता का प्रमाण है। ब्रज में प्रचलित शब्दावली का प्रयोग करते हुए, सूर ने उसे काव्योपयोगी बनाया, जिसका अनुसरण अन्य कवियों ने भी किया। ब्रज का लोकजीवन सूर में इसलिए भी प्रामाणिकता पा सका क्योंकि पूरा मुहावरा ब्रजमंडल से प्राप्त किया गया है। सूर गीतस्रष्टा हैं और इसके निर्वाह के लिए लालित्य, माधुर्य, लय आदि गुणों की आवश्यकता होती है। सूर का काव्य इसका अप्रतिम उदाहरण है । पद राग-रागिनियों में बाँधे गए और उनमें शास्त्रीय संगीत तथा लोकसंगीत का सक्षम
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82 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन