________________
भाषाओं के ज्ञाता, अरबी-फारसी के साथ वे संस्कृत भी जानते थे और हिंदी में भी उनकी रचनाएँ हैं। रहीम ने नीति-विषयक दोहे लिखे और उन्हें लोकप्रियता मिली क्योंकि वे सामान्यजन के लिए ग्राह्य थे : जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाहिं/गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं। अथवा जे गरीब पर हित करें, ते रहीम बड़ लोग/कहाँ सुदामा बापुरी, कृष्ण मिताई जोग। बरवै रहीम का प्रिय छंद है जिसे उन्होंने अवधी भाषा में साधा। इन्हीं छंदों में कृष्णभक्ति का श्रृंगार वर्णन एक सौ एक छंदों में है : मनमोहन बिन तिय के, हिय मुख बाढ़/आयौ नन्द-ढोठनवा, लगत असाढ़ ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन-प्रान/ऊधौ यह संदेसवा अकह महान; लखि मोहन की बंसी, बंसी जान/ लागत मधुर प्रथम पै, बेधत प्रान। कृष्ण के साथ रहीम ने राम का भी स्मरण किया है : भज मन राम सियापति, रघुकुल ईस/दीनबंधु दुख टारन, कौसलधीस । रहीम के विषय में आचार्य शुक्ल का कथन है : 'जीवन की सच्ची परिस्थितियों के मार्मिक रूप को ग्रहण करने की क्षमता जिस कवि में होगी, वही जनता का प्यारा होगा' (हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 188)। शुक्लजी ने तुलसी-रहीम में समीपता भी देखी है, भाव-स्तर पर।
रसखान (1533-1618), रहीम (1556-1627) लगभग समकालीन हैं। रसखान ने भी रहीम की तरह कई राजवंश देखे थे, हुमायूँ से जहाँगीर तक, पर वे सामंत (जागीरदार) होकर भी, उससे दूर थे और मुसलमान होकर भी कृष्णभक्तों में परिगणित हुए। रसखान ग्रंथावली का संपादन करते हुए आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने रसखान द्वारा कवित्त-सवैयों में वर्णित कृष्णलीला को विभिन्न शीर्षकों में रखा है : बाल-लीला, गोचारण, कुंज लीला, रास, पनघट, राधा-रूप-छटा, वंशी प्रेमभाव आदि । रसखान अपने भक्ति भाव को, पूरी तन्मयता के साथ स्वतंत्र रीति से प्रस्तुत करते हैं, उस पर दार्शनिक दबाव नहीं हैं। वहाँ प्रेम प्रधान है और कवि भावनामयता के साथ इसमें सम्मिलित हैं : मानुष हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन/जो पशु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नन्द की धेनु मॅझारन अथवा या लकुटी अरु कामरिया पै, राज तिहूंपुर को तजि डारौं/आठहुँ सिद्धि नवो निधि को सुख, नन्द की गाय चराइ बिसारौं । रसखान कृष्ण-चरित्र के साथ भावात्मक यात्रा करते हैं-कृष्ण, राधा, गोपियों को विषय रूप स्वीकारते हुए। विद्वानों का विचार है कि अलंकारशास्त्र ने भी कवि को प्रभावित किया है, पर वे भाव को सर्वोपरि रखते हैं। रसखान गोपी-भाव की पुष्टि करते हैं : कोउ न काहु की कानि करै, सिगरो ब्रज बीर बिकाइ गयो है अथवा भई मधु की मखियाँ रसखान, जू नेह को बंधन क्यों हूँ छुटै ना (अँखियाँ मधु की मखियाँ भईं मेरी ) आदि। रहीम की रुचि कृष्ण की लीलाओं के वर्णन में नहीं है, उस माध्यम से सर्जित होने वाले भावलोक में है और यही उन्हें मार्मिकता देता है। 'प्रेमवाटिका' के दोहों में उन्होंने प्रेम-भाव को व्यक्त किया है, सूफ़ियों की तरह, पर आरंभ राधिका से है : प्रेम-अयन की राधिका, प्रेम बरन नंद नंद।
78 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन