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तुकाराम-रामदास के पुनरुत्थान भाव को तत्कालीन परिस्थितियों की उपज रूप में देखा जाना चाहिए। जिसे समाज का दलित वर्ग कहा जाता है, उस पर मराठी संतों का व्यापक प्रभाव रहा है और उन्हें दलित साहित्य का प्रस्थान माना जा सकता है। सजग सामाजिक चेतना के लिए मराठी संत काव्य उल्लेखनीय है, जहाँ परंपरा और आक्रोश एक साथ उपस्थित हैं, काव्य का समाजदर्शन रचते हुए।
हिंदी भक्तिकाव्य के मूल में हिंदी समाज की जातीय चेतना की भूमिका है, पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान के माध्यम से उसमें अन्य प्रदेशों की चेतना भी आई है। भक्ति के प्रस्थानग्रंथ भागवत की नवधा भक्ति प्रायः सबमें विवेचित है और उसकी सामाजिकता सर्वस्वीकृत है, इस अर्थ में कि भक्ति के अधिकारी सब हैं। यहाँ वर्ण-जाति-वर्ग की सीमाएँ टूटती हैं। मराठी संत कवियों ने हिंदी में भी रचना की, इसलिए हिंदी भक्तिकाव्य से उस काव्य का निकट संपर्क रहा है। कबीर आदि उस संत परंपरा में स्वीकृत हैं और इसका प्रभाव सिख पंथ तक फैला है। वैष्णव चेतना के माध्यम से सभी साहित्य एक-दूसरे के समीपी हैं, प्रादेशिकता का अंतर हो सकता है। बंगाल-पूर्वांचल में चैतन्य-चंडीदास ने वैष्णव मत का प्रचार किया और वह अंचल वृंदावन से जुड़ गया। बंगाल की वैष्णव चेतना का प्रभाव व्यापक रहा है और चैतन्य की प्रेरणा से षटगोस्वामी-रूप, सनातन, रघुनाथदास, रघुनाथ भट्ट, गोपाल भट्ट, जीवगोस्वामी ने ब्रजमंडल में कृष्णभक्ति को वैचारिक आधार दिया। असम में शंकरदेव (1449-1569) का 'एकशरण धर्म' काव्य तथा नाटक के माध्यम से प्रसरित हुआ और जनसामान्य में प्रभावी बना। तमिल आलवार संत एवं वैष्णवाचार्य, तेलुगु में बेमना (1412-80), बम्मेर पोतना (1400-1475), गुजरात में नरसी मेहता, राजस्थान में मीरा (1504-1558) आदि से भारतीय भक्तिकाव्य की सक्रियता का पता चलता है। इसी अर्थ में भक्ति आंदोलन और भक्तिकाव्य की व्यापकता स्वीकारी गई है।
भक्तिकाव्य के विवेचन में इसे स्वीकारना होगा कि भक्ति आंदोलन के मूल में लोकजागरण उपस्थित है, जिसे भक्त कवियों ने वाणी दी। इसका रूप समन्वित है जिसमें परंपरा की स्वीकृति है,. एक बिंदु, पर दूसरे बिंदु पर उससे असहमति भी है। डॉ. रामविलास शर्मा ने संत-भक्त साहित्य की क्रांतिधर्मिता का उल्लेख करते हुए कहा है : 'संत लोकधर्म के संस्थापक हैं। हिंदू धर्म, इस्लाम, इनके कर्मकांड, धर्मशास्त्र, कट्टर आचार-विचार, पुजारियों और मौलवियों की रीति-नीति के विरुद्ध ये संत मूलतः प्रेम के आधार पर मुक्ति, ईश्वर-प्राप्ति आदि के पक्ष में थे' (परंपरा का मूल्यांकन, पृ. 45)। उत्तर भारत में जहाँ हिंदी भक्तिकाव्य का सर्वोत्तम रचा गया-कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा हैं। मध्यकाल की चौदहवीं शती से हिंदी भक्तिकाव्य के मूल वृत्त को स्वीकार किया जाता है। सल्तनत काल, जिसे खल्जी सुल्तानों (1290-1320) से आरंभ किया जा सकता है-तेरहवीं-चौदहवीं ईसवी का
70 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन