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आचार-व्यवहार में मिलते हैं । 'भक्तिकाव्य की भूमिका' में प्रेमशंकर ने इसकी चर्चा की है। विचारणीय यह कि समाज-सुधारक के रूप में जो विचारक संत मध्यकालीन भारत में सक्रिय थे, उनका सांस्कृतिक अवदान क्या है और उन्होंने समन्वित संस्कृति का कौन-सा रूप गढ़ना चाहा । सुल्तान और बादशाह अपने दरबार के साथ प्रायः उच्च वर्ग तक सीमित थे, यद्यपि अकबर जैसे उदार शासक भी थे, जो इस दिशा में सजग थे कि समन्वय अधूरा है और इसे पूर्णता देने का कार्य भी आसान नहीं । पर इतना तो किया ही जा सकता है कि संवाद का सही माहौल बने, खुला विचार-विनिमय हो, कट्टरताएँ टूटें और उदार पंथ विकसित हो। इस दृष्टि से मध्यकालीन संत भक्त कवियों की भूमिका समाज-सुधारक और सांस्कृतिक नेतृत्व की है। उनका आक्रमण व्यर्थ की रूढ़ियों, अंधविश्वासों, आडंबर, पाखंड, कर्मकांड और सबसे अधिक घनघोर जाति-उपजातिवाद पर था। कबीर का प्रश्न है कि जाति - बिरादरी क्या होती है : हिंदू कहत हैं राम हमारा, मुसलमान रहमाना / आपस में दोउ लड़े मरत हैं, मरम को नहिं जाना । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का विचार है कि 'कबीरदास ने बाह्याचारमूलक धर्म की जो आलोचना की है, उसकी एक सुदीर्घ परंपरा थी। इसी परंपरा से उन्होंने अपने विचार स्थिर किए थे' (कबीर, पृ. 135 ) । सिद्ध - नाथ-संत-भक्त रचनाशीलता में सामाजिक सुधार का जो भाव विद्यमान है, वह बताता है कि सजग मनीषा अपने समय-समाज से संतुष्ट नहीं थी और नया मार्ग तलाश रही थी ।
सामाजिक सुधार से संस्कृति के लिए नई दिशाएँ खुलीं और सामंती समाज को देखते हुए, इसे महत्त्वपूर्ण कहा जाएगा। उदार चिंतन का प्रथम संघर्ष उस जाति-उपजातिवाद से रहा है जो मध्यकालीन भारत में बहुप्रचलित थी । चतुर्वर्ण उपजातियों, बिरादरियों में विभाजित हो गए थे, जिनकी संख्या बढ़ती जाती थी । पेशे पर आधारित लोग थे, जिन्हें वर्ण-व्यवस्था से बाहर रखा गया । इनमें वे भी हैं जो सरकारी लिखाई का काम करते थे और आगे चलकर शिक्षित समाज में सम्मिलित हुए । कठोर जाति व्यवस्था ने इस्लाम तक को किसी अंश तक विकृत करने का प्रयास किया और अस्पृश्यता तो भारतीय समाज का सबसे बड़ा कलंक है। शासक भी इसे जानते थे कि जाति-उपजातिवाद सच्ची राष्ट्रीयता के विकास में बड़ी बाधा है जिसके कारण भाव - ऐक्य नहीं हो पाता, दूरियाँ बनी रहती हैं। राज्य - विस्तार में उनके पास व्यवस्था में सुधार के लिए पूरा अवसर न था, पर जब भी अवकाश मिला, तो उदार शासकों ने इस ओर ध्यान दिया । जिस सल्तनत काल को कई बार अनुदार रूप में देखा जाता है, उस समय भी राजकीय स्तर पर जातीय सौमनस्य के प्रयास हो रहे थे। गोलकुंडा के सुल्तानों ने हिंदू मंत्रियों की नियुक्ति की और बंगाल के मुस्लिम शासकों ने रामायण-महाभारत के अनुवाद बांग्ला में कराए ताकि सबको उसकी जानकारी हो । सल्तनतकाल में विद्या को संरक्षण प्राप्त था, जिसका उल्लेख इतिहासकारों ने किया है। तारीखे - फ़ीरोज़शाही में भी इसकी चर्चा है, जो
मध्यकालीन समय-समाज और संस्कृति / 47