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है। विद्वानों का विचार है कि मध्वाचार्य की परंपरा में चैतन्य (1486-1533) आते हैं जिन्होंने बंगाल, पूर्वांचल से वृंदावन तक की वैष्णव भक्ति को प्रभावित किया। निम्बार्क द्वैताद्वैत के समर्थक हैं - जिसे भेदाभेद भी कहा जाता है । जीव-ब्रह्म मुक्तावस्था में अभेद की स्थिति में हैं और बृद्धावस्था में भेद की स्थिति में । निम्बार्क से कृष्णभक्ति को विशेष गति मिली क्योंकि वे श्रीकृष्ण अथवा वासुदेव को परब्रह्म मानते हैं तथा राधा-कृष्ण की कल्पना से कृष्ण-लीला में नई सक्रियता आई जबकि भागवत में राधा अनुपस्थित हैं । 'दशश्लोकी' (4/5 ) में कृष्ण का रूप वर्णित है, राधा-ध्यान के साथ। राधा के विकास पर विचार करते हुए विद्वानों ने निम्बार्क को महत्त्व दिया। श्री बलदेव उपाध्याय का कथन है : 'निम्बार्की कवियों ने इसी युगल तत्त्व ( राधा - कृष्ण) का उन्मीलन अपने भाषा-काव्यों में बड़ी सुंदरता से किया है। श्रीराधा-कृष्ण का नित्य विहार ही उपास्य तत्त्व है' (कल्याणमल लोढ़ा (सं.) : भारतीय साहित्य में राधा, पृ. 45) । विष्णुस्वामी नाम से कई आचार्य हैं, इसलिए उन्हें लेकर किंचित् मतभेद है। पर यह मान लिया गया कि विष्णुस्वामी की परंपरा में वल्लभाचार्य (1478-1530) हुए, जिससे उनके महत्त्व में वृद्धि हुई ।
वैष्णवाचार्यों की स्वतंत्र व्याख्याओं के होते हुए भी, इनमें कुछ समानताएँ हैं । वे शांकर वेदांती व्याख्या को अस्वीकार करते हुए, सगुण परमात्मन् की परिकल्पना करते हैं जो सर्वगुण संपन्न है । भक्ति को अग्रसर करते हुए, वे जीव के लक्ष्य रूप में भगवत्-प्राप्ति को निरूपित करते हैं । भक्ति के द्वार सबके लिए उन्मुक्त हैं और जाति-व्यवस्था को यहाँ कोई स्वीकृति नहीं है । ये आचार्य दार्शनिक स्तर पर सगुण-साकार भक्ति को प्रमुखता देते हैं, मठ-मंदिर निर्मित करते हैं और अपनी लंबी यात्राओं से उत्तर-दक्षिण को जोड़ते हैं । इस प्रकार उनकी एक सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका भी है जिसकी व्याख्याएँ अलग-अलग हो सकती हैं । वैष्णवाचार्यों ने लगभग चौदहवीं शती तक कार्य करते हुए भक्ति आंदोलन को नई सक्रियता दी, वैचारिक धरातल पर और अपनी व्याख्याओं से जैसे वे भक्ति का शास्त्र गढ़ना चाहते हैं । उनकी यायावरी वृत्ति प्राचीन शास्त्रीय - पंडिताई सीमाओं को पार करती है और यह उल्लेखनीय है कि उनका भक्तिचिंतन सामान्यजन को भी अपनी दृष्टि में रखता है । वैष्णवाचार्यों की ऐतिहासिक भूमिका यह कि वे कहीं वैचारिकता और भावना के मिलन-बिंदु पर उपस्थित हैं । वे शांकर वेदांती व्याख्या से अपनी असहमति व्यक्त करते हैं और सगुण का आग्रह करते हैं । समर्पण अथवा शरणागति भाव में भक्ति - ज्ञान का संयोजन उनके चिंतन की विशिष्ट उपलब्धि है और वैष्णव धर्म इस चिंतन से एक नया प्रस्थान प्राप्त करता है, इसमें संदेह नहीं । आलवार संतों ने सामान्यजन के लिए भक्तिभाव के जो द्वार उन्मुक्त किए थे, उसमें आचार्यों ने देवार्पित चिंतन का प्रवेश कराया, उसे स्थायित्व देने की कामना से। आगे चलकर रामानंद, वल्लभाचार्य, चैतन्य, नामदेव, शंकरदेव आदि में भक्ति को नया विकास मिला और संपूर्ण देश
भक्तिकाव्य का स्वरूप / 55