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वा के शिष्य हैं। इस प्रकार आचार्यों की पहली पीढ़ी है, जिसने भक्तिचिंतन अगसर किया और उसे सामान्यजन तक पहुँचाने का प्रयास किया। उल्लेखनीय
कि उन्होंने दक्षिण-उत्तर के बीच एक सांस्कृतिक सेतु का कार्य किया, भक्ति नगारिक स्तर पर । वर्ण-जाति के बंधन टूटने में आलवार संतों की भूमिका है। आलवार संत और आचार्य युग के आरंभिक चरण के अनंतर वैष्णवाचार्यों का वह या आता है, जिसे चतुःसंप्रदाय कहा जाता है : रामानुज, मध्वाचार्य, निंबार्क, विष्णस्वामी जो ग्यारहवीं-चौदहवीं शताब्दी के बीच सक्रिय थे। फिर दो महत्त्वपूर्ण आचार्य हैं : रामानन्द (1365-1468) और वल्लभाचार्य (1478-1530)।
___ आलवार संत और आचार्य-युगों के बीच भारतीय मनीषा का एक ऐसा विराट व्यक्तित्व उपस्थित है, जिसे विवेकानन्द (1863-1902) की तरह अल्प आयु मिली, पर जिसने अपनी तेजस्विता से चिंतन का नया इतिहास रचा। आदि शंकराचार्य (788-820) ने केवल बत्तीस वर्ष की आयु पाई, पर अपनी अद्वैत वेदांती व्याख्या से उन्होंने वैचारिक क्रांति का सूत्रपात किया। ब्रह्मसूत्र का भाष्य करते हुए कहा कि ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है। उन्होंने सत्य और भ्रम को सर्प-रज्जु दृष्टांत से समझाने का प्रयत्न किया। आदि शंकराचार्य की तार्किक-मेधा ऐसी अकाट्य कि उन्हें 'प्रच्छन्न बौद्ध' तक कहा गया। ब्रह्म निर्गुण, निर्विशेष, परम सत्य है और माया अविद्या है, जिसके पाश में जीव बँध जाता है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने समकालीन स्थिति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि आलवार, अदियार, ईश्वर-भक्ति के मार्ग का प्रचार कर रहे थे। मंदिरों में पूजन, त्यौहार, पौराणिक हिंदू धर्म प्रतिष्ठा पा रहे थे। ऐसे में शंकर की सम्मति में परस्पर विरोधी संप्रदायों के अंदर अद्वैत दर्शन ही एकमात्र निहित सत्य है। उनके शब्द हैं : 'शंकर के जीवन में विरोधी भावों का संग्रह मिलता है। वे दार्शनिक भी हैं, और कवि भी, ज्ञानी पंडित भी हैं और संत भी, वैरागी भी हैं और धार्मिक सुधारक भी' (भारतीय दर्शन, खंड 2, पृ. 444)। आनंद लहरी, सौंदर्य लहरी में उनकी काव्य-प्रतिभा व्यक्त हुई है, उनकी बौद्धिक क्षमताएँ तो भाष्यों में स्पष्ट हैं ही। धार्मिक सुधारक और संगठनकर्ता का परिचय देते हुए उन्होंने देश के चारों कोनों में मठ स्थापित किए : शृंगेरी, द्वारका, पुरी और बदरीनाथ। शंकराचार्य की असाधारण बौद्धिक प्रतिभा ने इस अर्थ में वैष्णवाचार्यों को उद्वेलित किया कि यदि शंकर की वेदांती व्याख्या पूर्णतया स्वीकार कर ली जाय तो साकारोपासना के लिए अवसर ही कहाँ रह जाएगा ? यद्यपि शंकर ने स्वयं मठ स्थापित किए, जहाँ देव-स्थान बने। शंकराचार्य ने वैष्णवाचार्यों को प्रस्थानत्रयी पर नई व्याख्याएँ प्रस्तुत करने के लिए उत्तेजित किया। इस प्रकार वैष्णव-चिंतन को गति देने में उनकी प्रकारांतर भूमिका है, प्रतिक्रिया रूप ही सही। शंकराचार्य बौद्धिक उन्मेष के अद्वितीय आचार्य हैं जो भारतीय चिंतन को तार्किकता देते हैं।
भक्ति आंदोलन की भूमिका में आलवार संत, भागवत, शंकराचार्य से वैचारिक
भक्तिकाव्य का स्वरूप / 53