________________
पर इसे अपनी ही माटी की उपज स्वीकार करना ही होगा, जिसमें अन्य विजातीय तत्त्व विलयित हो सकते हैं। रचना में आरोपण का अवसर अधिक नहीं होता और सजन-प्रकिया में सभी कुछ संयोजित होकर समग्र रचना-कृति का रूप लेता है। इसलिए भक्तिकालीन कवियों को दर्शन-विचार के विभाजन में रखकर समझने का प्रयत्न सही नहीं है। वियजदेवनारायण साही ने जायसी का विवेचन करते हुए, यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया है और उत्तर दिया है कि वे कवि पहले हैं और कुछ बाद में। पर दर्शन-विचार की भूमिका अपने स्थान पर है ही।
मध्यकालीन भक्तिकाव्य की पीठिका में सिद्ध-नाथ साहित्य विद्यमान है, जिसके महत्त्व को राहुल सांकृत्यायन जैसे प्रतिबद्ध विद्वानों ने स्वीकारा है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी का आदिकाल, नाथ संप्रदाय, हिंदी साहित्य की भूमिका, कबीर आदि ग्रंथों में इस साहित्य का विवेचन किया है। सुविधा के लिए इसे संत साहित्य कहा गया और कई बार 'निर्गुणियाँ' रूप की प्रमुखता मानी गई। कुछ विद्वान् सिद्ध-नाथ-भक्ति काव्य में एक क्रम देखते हैं, जो सही है, पर भक्तिकाव्य के विवेचन में साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण तथा अन्य मत-मतांतर के विभाजन के औचित्य में संदेह हो सकता है। संभव है किसी प्रवृत्ति विशेष की प्रमुखता के कारण नामकरण किए गए हों, पर वास्तविकता यह है कि महान् रचनाओं का एक समवेत स्वर उभरता है। सिद्ध-नाथ संप्रदाय की विद्रोही चेतना विशेष रूप से विचारणीय है, पर यहाँ द्वैत की स्थिति भी है। एक ओर उनका आक्रोशी स्वर है, जो जातिवाद, अंधविश्वास, पाखंड, शरीरवाद पर तीखे आक्रमण करता है, दूसरी ओर उनकी आध्यात्मिक चेतना है, जो योग से अपना संबंध स्थापित करती है। एक को ग्रहण कर, दूसरे को छोड़ देने से संत काव्य के चिंतन-वृत्त को समझने में कठिनाई होगी क्योंकि वे परस्पर पूरक भी हैं, विरोधी नहीं। वह एक प्रकार से भारतीय इतिहास का संक्रमण काल है जहाँ कोई केंद्रीय सत्ता नहीं थी, एक टूटा-बिखरा समाज था। इस्लाम का प्रवेश हो रहा था, जिसके साथ आरंभिक दौर में संवाद के प्रयत्न अधिक नहीं हुए। धर्म की मर्यादाएँ टूटी थीं और मूल्य-चिंता का स्थान आडंबर ने ले लिया था, जहाँ कर्मकांड हावी था। छोटी कही जाने वाली जातियाँ विपन्न स्थिति में थीं, और उच्च वर्ण भी कर्तव्य-पालन में च्युत था। संकटकाल में ऐसे ही मूल्यहीन समय आते हैं, सभ्यता-संस्कृति के इतिहास में। पर इसी विकृति स्थिति से नए मर्यादा-संसार का उदय होता है और संघर्ष सर्जन को गति देता है।
सिद्धों का समय आठ सौ-ग्यारह सौ के बीच स्वीकार किया गया है और उनकी संख्या चौरासी बताई गई है। इनमें सभी वर्गों के लोग थे जो शास्त्रीयता-पांडित्य आदि का दावा नहीं कर सकते थे। इनके पास अपना अनुभव-संसार था और इसी के साथ ईमानदार संवेदन क्षमता, जिसके बल-बूते पर वे रचना में अग्रसर हुए तथा इन्हें सामान्यजन की स्वीकृति मिली। प्रायः बौद्धों के निगतिकाल से संबद्ध वज्रयान
भक्तिकाव्य का स्वरूप / 59