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सिद्ध-नाथ साहित्य को साथ रखकर देखने पर, कतिपय भिन्नताओं के बावजूद कछ समान-सूत्र उभरते हैं। उनमें कलात्मक उत्कृष्टता की खोज कम करनी चाहिए, पर उनका सामाजिक-सांस्कृतिक आशय स्पष्ट है। उनके चिंतन की सम्मिलित भूमि है, जिसमें बौद्ध प्रभाव, योग-साधना, विशेषतया हठयोग, तंत्रयान के साथ, सजग सामाजिक चेतना है। उनकी अटपटी बानी लोकभाषा में सामान्यजन को सीधे ही संबोधित करना चाहती है और प्रहारात्मक होती है, जिसमें आक्रोश-भरा व्यंग्य भी व्यक्त हआ है। ऐसी दो-टूक शब्दावली में बातें कही गई हैं कि आभिजात्य को ललकारती प्रतीत होती हैं और कवियों के समक्ष लोक बराबर उपस्थित है। सिद्ध-नाथ संक्रमणकाल की उपज हैं, जब समाज एक विचित्र अनिर्णय की स्थिति में था और ऐसे में सबसे विचारणीय पक्ष समय के प्रति इन सचेत संतों का असंतोष भाव है। इनका स्वर निर्गुणिया अधिक है और वे कर्मकांड को स्वीकृति नहीं देते। इनके लिए शरीर ही मंदिर है, इसलिए सारा आग्रह आंतरिक शुचिता, इंद्रिय-निग्रह, संयम, शुद्ध आचार पर है। सहजता इनके चिंतन का मूलाधार है, जिसमें आध्यात्मिक मूल्यों पर बल दिया गया है। अहंकार से मुक्ति सच्चा ज्ञान है और गृहस्थ के लिए भी मोक्ष संभव है : सहजशील का धरे शरीर, सो गिरही गंगा का नीर। अपने सहज शील में गृहस्थ गंगाजल के समान पवित्र है। जाति-पाँत के बंधनों पर प्रहार करते हुए सिद्ध-नाथ अपने समय की कुरीतियों को पहचानते हैं, बेहतर मार्ग की तलाश करते हैं और इसका एक सामाजिक पक्ष है, जिससे भक्तिकाव्य को भी प्रेरणा मिली। सिद्ध-नाथ की रचनाएँ पर्याप्त समय तक संप्रदाय अथवा पंथबद्ध होने के कारण विद्वानों द्वारा उपेक्षित रहीं, यद्यपि लोकजन में उनका प्रचलन था। जब उनके विवेचन-विश्लेषण की ओर ध्यान गया, जिसमें राहुल सांकृत्यायन, क्षितिमोहन सेन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पीताम्बर दत्त बड्थ्वाल, परशुराम चतुर्वेदी आदि विद्वान् हैं, तो यह स्वीकारा गया कि सिद्ध-नाथ-संत-भक्त का एक क्रम बनाया जा सकता है। इसका एक पक्ष सामाजिक चेतना से संपन्न है, पर दूसरा बौद्ध धर्म की निगतिकालीन स्थिति की उपज।
भारत की ग्यारहवीं-चौदहवीं शताब्दी में समाज की संक्रमणकालीन स्थिति थी, जहाँ कई विचारधाराएँ टकराती दिखाई देती हैं, पर चिंतन का कोई सबल, स्पष्ट पक्ष उभर नहीं पा रहा था। जहाँ तक रचना की विचारभूमि का प्रश्न है, निर्विवाद है कि अनुभूति-संसार के भीतर ही उसकी स्थिति होती है। जिसे हिंदी का आदिकाल कहा जाता है, उसे प्रायः दसवीं-चौदहवीं शताब्दी के बीच माना गया है। इसके अनंतर भक्तिकाल की प्रभावी रचनाशीलता आती है। सिद्ध-नाथ साहित्य इसलिए भी उल्लेखनीय कि इस समय रचना का एक सम्मिलित स्वर है, जिसके भीतर वह सक्रिय हो सका। जैन-प्रभावित अपभ्रंश साहित्य है जिसमें अध्यात्म-शृंगार दोनों प्रकार की रचनाएँ हैं। रासो की वीरता-शृंगार-मिश्रित परंपरा है, जिसमें पृथ्वीराज रासो जैसे काव्य
भक्तिकाव्य का स्वरूप / 61