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भक्तिकाव्य के संदर्भ में दर्शन-विचार के भी प्रश्न हैं जिन पर वैष्णवाचार्यों की छाया है। द्वैत-अद्वैत-द्वैताद्वैत, शुद्ध-विशिष्ट आदि के दार्शनिक निकायों में इन कवियों को कहाँ रखा जाय और यह प्रश्न भी कि निर्गुण-निराकार, सगुण-साकार से संबद्ध करके इन्हें कैसे देखा जाना चाहिए ! भक्तिकाव्य भावावेशे का काव्य नहीं है और भक्ति भी ज्ञान-परिचालित है, जिसे सर्वोपरि विवेक कहा गया। वार्तालाप के प्रसंगों को छोड़ दें जहाँ शंकाओं का समाधान है-एक वक्ता है, दूसरा श्रोता, अन्यथा वैचारिकता समग्र संवेदन-संसार में अंतर्भुक्त है। भक्तिकाव्य जानता है कि उपदेश, प्रवचन की सीमा होती है, सब कुछ आचरण से प्रमाणित करना होता है-साधारण से साधारण चरित्र के माध्यम से। मीरा जो दार्शनिक धारा से सीधे-सीधे संबद्ध नहीं हैं और भावाश्रित गीतों में अपनी भक्तिभावना व्यक्त करती हैं, उनका भी आदर्श स्पष्ट है : जाके सिर मोर-मुकुट मेरो पति सोई। अवतारों के विभाजन का अनुमान भी इन कवियों को है, इसलिए तुलसी ने श्रीकृष्ण गीतावली की रचना की और सूरसागर में रामकथा कांडों में वर्णित है (नवम् स्कंध) तथा यशोदा बालक कृष्ण को रामचरित सुनाती हैं। इस सबसे भक्तिकाव्य की सम्मिलित भूमि का परिचय मिलता है। ___समाजशास्त्र और समाजदर्शन के संदर्भ में भक्तिकाव्य का वैविध्य विचारणीय है। देवत्व के मानुषीकरण की प्रक्रिया को पुराण-काल में नई गति प्राप्त हुई, यह निर्विवाद है। देवताओं की चरितार्थता पृथ्वी पर अवतरित होने में है, तब वे विश्वसनीय बनते हैं, हमारे समीपी। जिसे लीला-गान कहा गया, उसकी दार्शनिक स्थिति है कि परमेश्वर जीव के सुख-कल्याण के लिए पृथ्वी पर जन्म लेते हैं, पर सारी स्थितियों के बीच असंग रहते हैं। भागवत के दशम स्कंध के 29 वें अध्याय के अंत में कृष्ण गोपियों का गर्व-मान हटाने के लिए अंतर्धान हो जाते हैं। सूर का पद है : रुदन करति वृषभानु कुमारी/बार-बार सखियन उर लावति, कहाँ गए गिरिधारी (पद, 1729) । देवत्व का यह मानुषीकरण भक्तिकाव्य को सामान्यजन का समीपी बनाता है, सहज साधारणीकरण होता है। सभी भारतीय भाषाओं में भक्तिकाव्य का यह सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष रेखांकित करने योग्य है। वैष्णवाचार्यों ने यायावरी वृत्ति धारण की, उत्तर-दक्षिण को जोड़ा, देव मंदिरों में पद-भजन-गायन की व्यवस्था की। चैतन्य ने पूर्वांचल में एक नई भक्तिचेतना का प्रसार किया, जो वृंदावन से जुड़ी और चंडीदास, विद्यापति में भक्ति-साम्य देखा गया। पर भक्तिकाव्य ने लोकभाषाओं के माध्यम से देवत्व की अनेक मानवीय छवियाँ उभारी और उसके सर्वोत्तम स्वरों ने कालजयता प्राप्त की। कठिनाई कहाँ है ? सगुण-निर्गुण प्रसंग में विचारणीय है कि मध्यकाल में कर्मकांड, पुरोहितवाद पतनशील स्थिति में थे। धर्म विकृत था और पंथ-संप्रदाय की बहुलता थी, जहाँ सत्य-संधान के स्थान पर मठ-महंत प्रमुख थे। ऐसी स्थिति में निर्गुणियों ने सोचा कि मूर्तिपूजन से मुक्ति पाई जाय तो पुरोहितवाद
भक्तिकाव्य का स्वरूप / 63