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देहुरा न मसीत ।
नामदेव रामानन्द की तरह सजग सामाजिक चेतना से परिचालित हैं, पर उनका मुख्य माध्यम कविता है । अपने समय से विक्षुब्ध नामदेव ने कर्मकांड, पुरोहितवाद को अस्वीकार कर दिया और इन्हें जातीय सौमनस्य में बाधा माना। उनका विचार है कि नाम - स्मरण दान-पुण्य से श्रेष्ठ है जिससे मन का धरातल उठता है । महाराष्ट्र की महार जैसी साधारण जाति नामदेव की ओर आकृष्ट हुई क्योंकि उनका पंथ सबके लिए था । उन्होंने प्रश्न किया कि कुलीनता से क्या होगा, यदि आचरण की शुद्धता नहीं है । 'श्री नामदेव गाथा' शीर्षक से प्रो. शं. वा. दांडेकर की अध्यक्षता में नामदेव की रचनाओं का बृहद् संकलन प्रकाशित हुआ है, जिससे संत व्यक्तित्व की विराटता का बोध होता है । पीताम्बर बड़थ्वाल की ' रामानन्द की हिंदी रचनाएँ की तरह डॉ. भगीरथ मिश्र ने 'नामदेव की हिंदी पदावली' संपादित की है। इससे ज्ञात होता है। कि नामदेव मराठी के साथ हिंदी भाषी समाज तक भी पहुँचना चाहते हैं | नामदेव और उनसे प्रभावित संतजन ईश्वर के प्रति राग-भाव से समर्पित हैं और इस प्रकार
न जाति के लांछन को गौरव में बदल देते हैं | चोखा, बंका, महार जैसे कवि हैं जो शरणागति से मुक्तिकामना करते हैं । नामदेव का कथन है कि ईश्वर पर सबका समान अधिकार है और उत्तर भारत की यात्रा करते हुए उन्होंने जब जातियों को सौमनस्य का उपदेश दिया, प्रेम भक्ति के माध्यम से । उनके लिए नामस्मरण और संकीर्तन भाव का महत्त्व है क्योंकि यह निश्छल राग-भाव है, जहाँ जातीय सीमाएँ टूटती हैं । मध्यकालीन विभाजित समाज को देखते हुए, यह नामदेव का सामाजिक-सांस्कृतिक योगदान है ।
ज्ञानेश्वर - नामदेव में सिद्ध-नाथ परंपरा को नया विकास मिला और अटपटी बानी अधिक भावना-संपन्न हुई । उसमें काव्य के संवेदन तत्त्व गहराई से प्रवेश कर सके, प्रेमभाव के साथ | नामदेव को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिंदी साहित्य के इतिहास में एक समन्वित स्वर के रूप में देखते हैं । स्वामी रामानन्द की परंपरा में होकर उन्होंने भारतीय अद्वैतवाद के साथ सूफ़ी संस्कारों से भी सीखा और वे अद्वैतवाद - एकेश्वरवाद की मिलन - भूमि पर स्थित हैं । आचार्य शुक्ल का निष्कर्ष है : 'नामदेव का लक्ष्य एक ऐसी सामान्य भक्ति पद्धति का प्रचार था जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों योग दे सकें और भेदभाव का कुछ परिहार हो । बहुदेवोपासना, अवतार और मूर्तिपूजा का खंडन ये मुसलमानी जोश के साथ करते थे और मुसलमानों की कुरबानी (हिंसा), नमाज़, रोज़ा आदि की चर्चा पूरे हिंदू ब्रह्मज्ञानी बनकर करते थे । सारांश यह कि ईश्वर - पूजा की उन भिन्न-भिन्न बाह्य विधियों पर से ध्यान हटाकर, जिनके कारण धर्म में भेदभाव फैला हुआ था, ये शुद्ध ईश्वर - प्रेम और सात्त्विक जीवन का प्रचार करना चाहते थे' (पृ. 61) | नामदेव के सामाजिक-सांस्कृतिक व्यक्तित्व की स्वीकृति, विशेषतया जातीय सौमनस्य में उनकी भूमिका, संत महान् के योगदान
66 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन