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शाखा से इनका संबंध माना जाता है । यह संप्रदायगत पक्ष हो सकता है जिसके संकेत उनकी तांत्रिक शब्दावली में मिलते हैं, जिसे अनगढ़ लोकभाषा कहा गया, पर इनका महत्त्व इनकी सामाजिक चेतना में है। एक प्रकार से वे अपने समय के विक्षोभ को वाणी देने का आरंभिक प्रयास करने वाले संत कवि हैं और उनका आक्रमण उस गर्हित जाति-व्यवस्था पर है, जिससे ऊँच-नीच का भेद-भाव पनपता है । वे प्रश्न करते हैं कि वेदपाठ, मंत्रोचार से ईश्वर की प्राप्ति कैसे होगी ? मूल प्रश्न आंतरिक शुचिता का है । सिद्धों में सहजता का आग्रह इसलिए भी है कि यहाँ पांडित्य की सीमाएँ टूटती हैं, अहंकार की समाप्ति होती है । सिद्धों की दृष्टि को प्रायः अवैदिक भी कहा गया और उन्हें वैष्णव मत की मूल धारा में स्वीकार नहीं किया गया, पर जहाँ तक भक्तिकाव्य का प्रश्न है, उस पर उसकी छाया है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। कबीर आदि इसके उदाहरण हैं। राहुल सांकृत्यायन सरहपाद को प्रथम सिद्ध मानते हैं और शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा आदि की पूरी सूची प्रस्तुत करते हुए, उनकी कविताओं के सामाजिक आशय का विशेष उल्लेख करते हैं । व्यवस्था पर आक्रमण और जनभाषा में उसकी अभिव्यक्ति से सिद्धों को सामान्यजन की स्वीकृति मिली । विचारों की दृष्टि से उनमें दो विपरीत दिशाएँ भी देखी जा सकती हैं, सामाजिक चेतना तथा योग शब्दावली, पर लोक ने उन्हें स्वीकारा, मौखिक परंपरा में और उनका सामाजिक आशय उल्लेखनीय है ।
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नाथ संप्रदाय का विकास सिद्धों से हुआ जो बारहवीं - चौदहवीं शती के बीच सक्रिय थे। इनमें बौद्ध-तंत्र, शैव-शाक्त का संयोजन माना जाता है और इसकी कई शाखाएँ भी बताई जाती हैं। नाथ संप्रदाय के प्रवर्तकों में मत्स्येन्द्रनाथ कहे गए पर इसमें गोरखनाथ (तेरहवीं शती) के साहित्य को अधिक महत्त्व दिया गया। सिद्धों-नाथों में पर्याप्त समानताएँ हैं- जाति-वर्ण-विरोध, बाह्याचार की अस्वीकृति, शास्त्र से मुक्ति आदि। नाथ साहित्य में साधना के दोनों स्तर हैं, वैयक्तिक जो शुद्ध आचरण पर आश्रित है और सामाजिक सजगता जहाँ विकृतियों पर आक्रमण हैं। गोरखनाथ द्वारा योगमार्ग का समर्थन प्रमाणित करता है कि आग्रह इंद्रिय - निग्रह पर है । इंद्रियों का स्वामी मन है, जो चंचल है, उसे वश में करने के लिए योग-साधना की आवश्यकता होती है । संस्कृत के साथ हिंदी में उनकी रचनाएँ हैं, जिन्हें 'गोरखबानी' नाम से संकलित किया गया (सं. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ) । गोरखनाथ के 'गोरक्षसिद्धांत संग्रह ' ( म. म. गोपीनाथ कविराज) से ज्ञात होता है कि वे अनेक ग्रंथों के रचयिता हैं । उनमें गुरु की स्वीकृति है और गोरक्षसिद्धांत के आरंभ में ही गुरु की महिमा प्रतिपादित है । साधना के मार्ग में गुरु का महत्त्व असंदिग्ध है क्योंकि वह मार्ग प्रशस्त कराता है, रहस्य समझाता है । वह आरंभिक आलोकदाता है, प्रकाश-पुंज तथा सर्वोपरि संत- अवधूत भी वही है, जो तीर्थ के समान है। गोरखनाथ का अपने समय में व्यापक प्रभाव था और उन्हें केंद्र में रखकर मठ तक स्थापित हुए ।
60 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन