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है और भक्त-ईश्वर के बीच सीधा संवाद है। आलवार प्रायः सामान्य वर्ग से आए थे और अपनी भावमयता से उनके पद वर्षों तक मौखिक परंपरा में जनता में प्रचलित रहे। सभी वर्गों के साथ अंत्यज तथा महिला आण्डाल तक इनमें थी और समाज पर इनका व्यापक प्रभाव रहा है। देशी भाषा में होने के कारण देवमंदिरों में उनके भजन-गायन की जो व्यवस्था आगे चलकर नाथमुनि द्वारा हुई, उससे पदों को जनप्रियता मिली। एक प्रकार से यह संहितारहित भक्ति का स्वर है, जहाँ कर्मकांड का निषेध है। यद्यपि वैष्णव आलवारों के साथ शैव नायनमार भी सक्रिय थे, पर भक्ति प्रवाह को गति देने में आलवारों की भूमिका अधिक प्रभावी है। यहाँ वर्ण-जाति, पांडित्य, कर्मकांड के बंधन टूटते हैं और बिना किसी मध्यस्थ के उपास्य को संबोधित किया गया है। इस दृष्टि से आलवारों की भूमिका ऐतिहासिक है। 'आलवार्स ऑफ साउथ इंडिया' का संपादन करते हुए के. सी. वरदाचारी का मत है कि 'आलवारों की लोकप्रियता का रहस्य उनकी सहज भावनामयता है, जिसे उनकी भक्ति रचनाओं, गेय पदों में देखा जा सकता है' (प्राक्कथन, पृ. 16)। संभवतः संपूर्ण भक्तिकाव्य की जनप्रियता का एक रहस्य यह भी है कि वह देवमंदिर, गायन, प्रार्थना और यहाँ तक कि दृश्य-लीलाओं से जुड़कर मौखिक परंपरा का एक अविभाज्य अंग बन गया। श्रव्य-दृश्य काव्य का अद्भुत समागम उसकी क्षमता है और जनता में उसे व्यापक स्वीकृति मिली। आलवारों में नम्मालवार प्रमुख हैं, जिन्हें शठकोप भी कहा गया, शूद्र थे पर उनके शिष्य मधुर कवि ब्राह्मण। शठकोप को अवयवी माना गया, शेष को अवयव। आलवार संतों के बाद आचार्य युग है, दसवीं से चौदहवीं शताब्दी के अंत तक।
आलवार संतों का प्रभाव इतना व्यापक था कि उसे सामान्यजन के साथ पंडित वर्ग की भी स्वीकृति मिली। आचार्यों में प्रस्थानत्रयी ब्रह्मसूत्र, उपनिषद और गीता पर भाष्य की परंपरा थी और इसे पांडित्य का प्रतिमान भी माना जाता था। आगे चलकर चतुर्थ प्रस्थान-भागवत पर भी टीकाएँ लिखी गईं। आलवारों की भक्ति-भावना को स्वीकारते हुए, आचार्य युग के आदि आचार्य रंगनाथ मुनि ने, जिन्हें नाथमुनि (824-924) भी कहा जाता है, आलवार संतों की वाणी का संकलन किया जिसे 'दिव्यप्रबंधम्' कहा गया और इसे तमिल वेद का सम्मान मिला। आचार्यश्री ने श्रीरंगम् मंदिर में इनके भजन-गायन की व्यवस्था की और इस प्रकार आलवार-पदों का व्यापक प्रसार हुआ। नाथमुनि ने एक साथ कई भूमिकाओं का निर्वाह किया। दिव्यप्रबंधम के गायन का प्रबंध एक प्रकार से उनका सांस्कृतिक कार्य है, पर विशिष्टाद्वैत का प्रथम दार्शनिक ग्रंथ (न्यायतत्त्व) रचने के साथ उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कि भक्ति में सभी वर्गों-जातियों के लोग सम्मिलित हों और यह उनका सराहनीय सामाजिक कार्य है। नाथमुनि के क्रम में पुंडरीकाक्ष, राम मिश्र के नाम आते हैं, फिर पौत्र यामुनाचार्य (916-1034) का। कहा जाता है कि यशस्वी वैष्णवाचार्य रामानुजाचार्य (1016-1137)
52 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन